इनके

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

इनके अतिरिक्त ५ मात्रिक गण भी होते हैं; यथा— टगण—६ मात्राओं का । ठगण—५,, ,, डगण—४,, ,, ढगण—३,, ,, णगण—२,, ,, पर इनका प्रयोग प्राचीन ग्रंथों में ही मिलता है ।

९. पाणिनीय व्याकरण में धातुओं और शब्दों के वे समूह जिनमें समान लोप, आगम, वर्णविकारादि हों । विशेष—ये दो प्रकार के हैं—एक धातु के गण, दूसरे शब्दों के । शब्दों के गण गणपाठ में है और धातुऔं के गण धातुपाठ में । धातुओं के प्रधान दस गण हैं—भ्वादि, अदादि, जुहोत्यादि या ह्वादि, दिवादि, स्वादि, तुदादि, रुधादि, तनादि क्रयादि, चुरादि ।

१०. शिव के पारिषद । प्रमथ ।

११. दूत । सेवक । परिषद् । ड॰—गणन समेत सती तहँ गई । तासों दक्ष बात नहिं कही ।—सूर (शब्द॰) ।

१२. परिचारक वर्ग । अनुचरों का दल ।

१३. पक्षपाती । अनुयायी । जैसे,—ये सब उन्हीं के गण हैं; इनसे सावधान रहना ।

१. चोवा नामक सुगंध द्रव्य ।

१५. किसी विशेष कार्य के लिये संघटित समाज या संघ । जैसे,— व्यापारियों का गण, भिक्षुक, संन्यासियों का गण ।

१६. शासन करनेवाली जाति के मुखियों का मंडल । जैसे—मालवों का गण, क्षुद्रकों का गण । विशेष—प्राचीन काल में कहीं कहीं इस प्रकार के गणराज्य होते थे । मालवा में पहले मालवों का गणराज्य था जिनका संवत् पीछे विक्रम संवत् कहलाया ।