सामग्री पर जाएँ

उत्प्रेक्षा

विक्षनरी से

प्रकाशितकोशों से अर्थ

[सम्पादन]

शब्दसागर

[सम्पादन]

उत्प्रेक्षा संज्ञा स्त्री॰ [सं॰] [वि॰ उत्प्रेक्ष्य]

१. उदभावना । आरोप ।

२. एक अथलिंकार जिसमें भेद—ज्ञान—पूर्वक उपमेय में उपमान की प्रतीति होती है । जैसे, मुख मानो चंद्रमा है । मानो, जानो, । मनु, जनु, इव, मेरी जान, इत्यादि शब्द इस अलंकार के वाचक हैं । पर कहीं ये शब्द लुप्त भी रहते हैं : जैसे गम्योत्प्रेक्षा में । विशेष—इस अलंकार के पाँच भेद हैं—(१) वस्तूत्प्रेक्षा, (२) हेतूत्प्रेक्षा, (३) फलोत्प्रेक्षा, (४) गम्योत्प्रेक्षा और (५) सापहनवोत्प्रेक्षा । (१) वस्तूत्प्रेक्षा में एक वस्तु दूसरी वस्तु के तुल्य जान पड़ती है । इसको स्वरूपोत्प्रेक्षा भी कहते हैं । इसके दो भेद हैं—'उक्तविषया' और 'अनुक्तविषया' ।जिसमें उत्प्रेक्षा का विषय कह दिया जाय वह उक्तविषया है । जैसे, सोहत ओढ़ै पीतु पटु स्याम, सलोने गात, मनो नीलमनि सैल पर आतपु परयौ प्रभात ।—बिहारी र॰, दो॰ ६८९ । यहाँ 'श्यामतनु,' जो उत्प्रेक्षा का वाषय है, वह कह दिया गया है । जहाँ विषय न कहकर उत्प्रेक्षा की जाय तो उसे 'अनुक्तविषया उत्प्रेक्षा' कहते हैं । जैसे, 'अंजन बरबत गगन यह मानो अथये भानु (शब्द॰) । अंधकार, जो उत्प्रेक्षा का विषय है, उसका उल्लेख यहाँ नहीं हैं । (२) हेतूत्प्रेक्षा—जिसमें जिस वस्तु का हेतु नहीं है, उसको उस वस्तु का हेतु मानकर उत्प्रेक्षा करते हैं । इसके भी दो भेद हैं—'सिद्धविषया' और 'असिद्धविषया' । जिसमें उत्प्रेक्षा का विषय सिद्ध हो उसे 'सिद्धविषया' कहते हैं । जैसे, 'अरुण भये कोमल, चरण भुवि चलिंब ते मानु । (शब्द॰) ।— यहाँ नायिका का भूमि पर चलना सिद्धविषय है परंतु भूमि पर चलना चरणों के लाल होने का कारण नहीं हैं । जहाँ उत्प्रेक्षा का विषय असिद्ध अर्थात् असंभव हो उसे 'असिद्धविषया' कहते हैं । जैसे, अजहुँ मान रहिबो चहत थिर तिय-हृदय-निकेत, मनहुँ उदित शशि कुपित ह्वै अरुण भयो एहि हेत (शब्द॰) । स्त्रियों का मान दूर न होने से चंद्रमा को क्रोध उत्पन्न होना । सर्वथा असंभव है । इसलिये 'असिद्धविषया' है । (३) फलोत्प्रेक्षा जिसमें जो जिसका फल नहीं है वह उसका फल माना जाय । इसके भी दो भेद हैं—सिद्धविषया और असिद्धविषया । 'सिद्धविषया' जैसे, कटि मानो कुच धरन को किसी कनक की दाम (शब्द॰) । 'असिद्धविषया' जैसे, जौ कटि समता लहन मनु सिंह करत बन बास (शब्द॰) । (४) गम्योत्प्रेक्षा जिसमें उत्प्रेक्षावाचक शब्द न रखकर उत्प्रेक्षा की जाय । जैसे, तोरि तीर तरु के सुमन वर सुंगध के भौन, यमुना तव पूजन करत बृंदावन के पौन (शब्द॰) । (५) सापह्मैवो- त्प्रेक्षा' जिसमें अपहनुति सहित उत्प्रेक्षा की जाय । यह भी वस्तु, हेतु और फल के विचार से तीन प्रकार की होती है— (क) सापहनव वस्तुत्प्रेक्षा' जैसे, तैसी चाल चाहन चलति उतसाहन सौं, जैसो विधि बाहन विराजत बिजैठो है । तैसो भृकुटी को ठाट तैसो ही दिपै ललाट तैसो ही बिलोकिबे को पीको प्रान पैठो है । तैसियै तरुनताई नीलकंठ आई उर शैशव महाई तासों फिरै ऐंठो ऐंठो है । नाहीं लट भाल पर छूटे गोरे गाल पर मानव रूपमाल पर ब्याल ऐंठ बैठो है । (शब्द॰) । यहाँ गौरवर्ण कपोल पर छूटी हूई अलकों का निषेध करके रूपमाला पर सर्प के बैठने की संभावना की गई है । अतः 'सापहनव वस्तुत्प्रेक्षा' है । (ख) सापहनव हेतूत्प्रेक्षा' जैसे, फूलन के मग में परत पग डगमगे मानौ सुकुमारता की बेलि विधि बई है । गोरे गरे धँसत लसत पीक लीक नीकी मुख ओप पूरण छपेश छबि छई है । उन्नत उरोज औ नितंब भीर श्रीपति जू टूटि जिन परै लंक शंका चित्त भई है । याते रोममाल मिस मारग छरी दै त्रिबली की डोरि गाँठि काम बागबान दई है (शब्द॰) । यहाँ 'मिस' शब्द के कथन से कैतवा हनुति से मिली हुई हेतूत्प्रेक्षा है, क्योंकि त्रिवली रूप रस्सी बाँधते कुच और नितंब भार से कटि न टूट पड़े इस अहेतु को हेतु भाव से कथन किया गया है । (ग) 'सापहनव फलोत्प्रेक्षा' जैसे, कमलन कों तिहि मित्र लखि मानहु हतबे काज, प्रविशहिं सर नहिं स्नानहित रवितापित गजराज (शब्द॰) । यहाँ सूर्यतापित होकर गज का सरोवर में प्रवेश स्थान के लिये न बताकर यह दिखाया गया है कि वह कमलों को, जो सूर्य के मित्र हैं, नष्ट करने के लिये आया है ।