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उद्रेक

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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उद्रेक संज्ञा पुं॰ [सं॰] [वि॰ उद्रिक्त]

१. वृद्धि । बढ़ती । अधिकता । ज्योदती ।

२. आरंभ । उपक्रम (को॰) ।

३. ऐश्वर्य (को॰) । एक काव्यालंकार जिसमें कई, सजातीय वस्तुओं की किसी एक जातीय या विजातीय वस्तु की अपेक्षा तुच्छता दिखाई जाय अर्थात् जिसमें वस्तु के कई गुणों या दोषों का किसी एक गुण, या दोष के आगे मंद पड़ जाना वर्णन किया जाय । विशेष—इसके चार भेद हो सकते हैं—(क) जहाँ गुण से गुणों की तुच्छता दिखाई जाय । उ॰—जयो नृपति चालुक्य को, नयो बंगपति कंध । परगहि अठ सुलमतान सथ, किय अपूर्व जयचंद । यहाँ जयचंद का आठ सुलतानों को साथ पकड़ना , चालुक्य और बंगदेश के राजाऔं को जीतने की अपेक्षा बढ़कर दिखाया गया है ।

२. जहाँ गुण से दोषों की तुच्छता दिखाई जाय । उ॰—बैठत जल, पैठत पुहुमि ह्वै निसि अन उद्योत । जगत प्रकाशकता तदपि रवि में हानि न होत । यहाँ जल में बैठ जाने और रात में प्रकाशरहित रहने की अपेक्षा सूर्य में जगत् को प्रकाशित करने के गुण की अधिकता दिखाई गई है ।

३. जहाँ दोष से दोषों की तुच्छता दिखाई जाय । उ॰—निरखत बोलत हँसत नहिं नहिं आवत पिय पास । भो इन सबसों अधिक दुख, सौतिन के उपहास ।

४. जहाँ दोष से गुणों की तुच्छता दिखाई जाय । उ॰—गिरि हरि लोटत जंतु लों पूर्ण पतालहि कीन्ह । परग्यो गौरव सिंधु को मुनि इक अंजुलि पीन्ह । यहाँ समुद्र में विष्णु और पर्वत के लोटने और पाताल को पूर्ण करने के गुणों की अपेक्षा उसके अगस्त्य मुनि द्वारा पिए जाने के दोष का उद्रेक है ।