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उपमा

विक्षनरी से

प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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उपमा ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰] [वि॰ उपमान, उपमापक, उपमित, उपमेय]

१. किसी वस्तु, व्यापार या गुण को दूसरी वस्तु, व्यापार या गुण के समान प्रकट करने की क्रिया । सादृश्य । समानता । तुलना । मिलान । पटतर । जोड़ । मुशाबहत । उ॰—सब उपमा कबि रहे जुठारी । केहि पटतरौं विदेहकुमारी ।— मानस, १ । २३० ।

२. एक अर्थालंकार जिसमें दो वस्तुओं (उपमेय और उपमान) के बीच भेद रहते हुए भी उनका समान धर्म बतलाया जाता है । जैसे,—उसका मुख चंद्रमा के समान है । विशेष—उपमा दो प्रकार की होती है पूर्णोपमा और लुप्तोपमा । पूर्णोपमा वह है जिसमें उपमा के चारों अंग उपमान, उपमेय, साधारण धर्म, और उपमावाचक शब्द वर्तमान हों । जैसे,—'हरिपद कोमल कमल से' इस उदाहरण में 'हरिपद' (उपमेय), कमल (उपमान), कोमल (सामान्य धर्म) और 'से' (उपमासूचक शब्द) चारों आए हैं । लुप्तोपमा वह हे जिसमें उपमा के चारों अंगों में से एक दो, या तीन न प्रकट किए गए हों । जिसके एक अंग का लोप हो उसके तीन भेद हैं, धर्मलुप्ता, उपभानलुप्ता और वाचकलुप्ता जैसे,—(क) बिज्जुलता सी नागरी, सजल जलद से श्याम (प्रकाश आदि धर्मों का लोप) । (ख) मालति सम सुंदर कुसुम ढूँढ़ेहु मिलिहै नहिं (उपमान का लोप) । (ग) नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन (उपमा- वाचक शब्द का लोप) । इसी प्रकार जिस उपमा के दो अंगो का लोप हौता है उसके चार भेद हैं—वाचकधर्मलुप्ता, धर्मोपमानलुप्ता, वाचकोपमेयलुप्ता, वाचकोपमानलुप्ता, जैसे,— (क) धरनधीर रन टरन नहीं करन करन अरि नाश । राजत नृप कुंजर सुभट यस तिहुँ लोक प्रकाश (सामान्य) धर्म आर वाचक शब्द का लोप । (ख) रे अलि मलिति सम कुसुम ढूँढेहु मिलिहै नाहिं (उपमान और धर्म का लोप) । (ग) अटा उदय हो तो भयो छविधरप पूरनचंद (वाचक और उपमेय का लोप) ।

उपमा ^२पु संज्ञा स्त्री॰ [गु॰ उपमान=वर्णन, दृष्टांत] वर्णन । बयान । प्रशंसा । उ॰—जो गई भैंसि पाई । या प्रकार सगरे ब्रजवासी बहू की उपमा करने लागे ।—दो॰ सौ बावन॰, भा॰ २, पृ॰ ३ ।