उपर
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]उपर अव्य॰ [सं॰ उपरि] दे॰ 'ऊपर' । उ॰—(क) पुत्र सनेह मई रसमई । माया जननि उपर फिरि गई ।—नंद॰ ग्रं॰, पृ॰ २४३ । (ख) तब वह ब्राह्मन उपर कै घर खोलिकै आप नीचे रह्यौ ।—दो सौ बावन॰, भा॰ २, पृ॰ ७० ।
उपर जो क्रम दिया गया है उसे देखने से पता लगेगा कि मिताक्षरा माता का स्वत्व पहले करती है और दायभाग पिता का । याज्ञवल्क्य का श्लोक है— पत्नी दुहितरश्यौव पितरौ भ्रातरस्तथा । तत्सुता गोत्रजा बंधुः शिष्यः सब्रह्मचारिणः । । इस श्लोक के 'पितरौ' शब्द को लेकर मिताक्षरा कहती है कि 'माता पिती' इस समास में माता शब्द पहले आता है और माता का संबंध भी अधिक घनिष्ठ है, इससे माता का स्वत्व पहले है । जीमूतवाहन कहता है कि 'पितरौ' शब्द ही पिता की प्रधानता का बोधक है इससे पहले पिता का स्वत्व है । मिथिला, काशी और बंबई प्रांत में माता का स्वत्व पहले और बंगाल, मदरास तथा गुजरात में पिता का स्वत्व पहले माना जाता है । मिताक्षरा दायाधिकार में केवल संबंध निमित्त मानती है और दायभाग पिंडोदक क्रिया । मिताक्षरा 'पिंड' शब्द का अर्थ शरीर करके सपिंड से सात पीढ़ियों के भीतर एक ही कुल का प्राणी ग्रहण करती है, पर दायभाग इसका एक ही पिंड से संबद्ध अर्थ करके नाती, नाना, मामा इत्यादि को भी ले लेता है । मिताक्षरा और दायभाग के बीच मुख्य मुख्य बातों का भेद नीचे दिखाया जाता हैः (१) मिताक्षरा के अनुसार पैतृक (पूर्वजों के) धन पर पुत्रादि का सामान्य स्वत्व उनके जन्म ही के साथ उत्पन्न हो जाता है, पर दायभाग पूर्वस्वामी के स्वत्वविनाश के उपरांत उत्तराधिकारियों के स्वत्व की उत्पत्ति मानता है । (२)मिताक्षरा के अनुसार विभाग (बाँट) के पहले प्रत्येक सम्मिलित प्राणी (पिता, पुत्र, भ्राता इत्यादि) का सामान्य स्वत्व सारी संपत्ति पर होता है, चाहे वह अंश बाँट न होने के कारण अव्यक्त या अनिश्चित हो । (३)मिताक्षरा के अनुसार कोई हिस्सेदार कुटुंब संपत्ति को अपने निज के काम के लिये बै या रेहन नहीं कर सकता पर दायभाग के अनुसार वह अपने अनिश्चित अंश को बँटवारे के पहले भी बेच सकता है । (४) मिताक्षरा के अनुसार जो धन कई प्राणियों का सामान्य धन हो, उसके किसी देश या अंश में किसी एक स्वामी के पृथक् स्वत्व का स्थापन विभाग (बटवारा) है । दायभाग के अनुसार विभाग पृथक् स्वत्व का व्यंजन मात्र है । (५) मिताक्षरा के अनुसार पुत्र पिता से पैतृक संपत्ति को बाँट देने के लिये कह सकता है, पर दायभगा के अनुसार पुत्र को ऐसा अधिकार नहीं है । (६)मिताक्षरा के अनुसार स्त्री अपने मृत पति की उत्तराधिका- रिणी तभी हो सकती है जब उसका पति भाई आदि कुटुंबियों से अलग हो । पर दायभाग में, चाहे पति अलग हो या शामिल, स्त्री उत्तराधिकारिणी होती है । (७) दायभाग के अनुसार कन्या यदि विधवा, वंध्या या अपुत्रवती हो तो वह उत्तराधिकारिणी नहीं हो सकती । मिताक्षरा में ऐसा प्रतिबंध नहीं है । याज्ञवल्क्य, नारद आदि के अनुसार पैतृक धन का विभाग इन अवसरों पर होना चाहिए— पिता जब चाहे तब, माता की रजोनिवृत्ति और पिता की विषयनिवृति होने पर, पिता के मृत, पतित या संन्यासी होने पर ।