उल्का

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

उल्का संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]

१. लूक । लुआठा । यौ॰—उल्कामुख । उल्काजिह्वा ।

३. मशाल । दस्ती ।

३. दिया । चिराग ।

४. एक प्रकार के चमकीले पिंड जो कभी कभी रात को आग की लकीर के समान आकाश में एक ओर से दूसरी ओर को वेग से जाते हुए अथवा पृथ्वी पर गिरते हुए दिखाई पड़ते हैं । विशेष—इनके गिरने को 'तारा टूटना' या 'लूक टूटना' कहते हैं । उल्का के पिंड प्रायः किसी विशेष आकार के नहीं होते । कंकड़ या झाँवे की तरह ऊबड़खाबड़ होते हैं । इनका रंग प्रायः काला होता है और उनके ऊपर पालिश या लूक की तरह चमक होती है । ये दो प्रकार के होते हैं—एक धातुमय और दूसरे पाषाणमय । धातुमय पिंड़ों की परीक्षा करने से उनमें विशेष अंश लोहे का मिलता है, जिसमें निकल भी मिला रहता है । कभी कभी थोड़ा ताँबा और राँगा भी मिलता है । इनके अतिरिक्त सोना, चाँदी आदि बहुमूल्य धातुएँ कभी नहीं पाई जातीं । पाषाणमय पिंड यद्यपि चट्टान के समान होते हैं, तथापि उनमें भी प्रायः लोहे के बहुत महीन कण मिले रहते हैं । यद्यपि किसी किसी में उज्जन या उद्जन (हाइड्रोजन) और आक्सिजन के साथ मिला हुआ कारबन भी पाया जाता है जो सावयव द्रव्य (जैसे, जीव और वनस्पति) के नाश से उत्पन्न कारबन से कुछ मिलता है । पर ऐसे पिंड केवल पाँच या छह पाए गए हैं, जिनमें किसी प्रकार की वनस्पति की नसों का पता नहीं मिला है । धातुवाले उल्का कम गिरते देखे घए हैं । पत्थरवाले ही अधिक मिलते हैं । उल्कापिंड मे कोई ऐसा तत्व नहीं है जो इस पृथ्वी पर न पाया जाता हो । उनकी परीक्षा से यह बात जान पड़ती है कि वे जिस बड़े पिंड से टूटकर अलग हुए होंगे, उनपर न जीवों का अस्तित्व रहा होगा, न जल का नामानिशान रहा होगा । वे वास्तव में 'तेजसंभव' हैं । ये कुछ कुछ उन चट्टान या धातु के टुकड़ों से मिलतेजुलते हैं जो ज्वालामुखी पर्वतों के मुहँ से निकलते हैं । भेद इतना ही होता है कि ज्वालामुखी पर्वत से निकलते टुकड़ों में लोहे के अँश मोरचे के रूप में रहते हैं और उल्कापिड़ों मे धातु के रूप में । उल्का का वेग प्रति सेकेंड दस मील से लेकर चालीस पचास मील तक का होता है । साधारण उल्का छोटे छोटे पिंड हैं जो अनियत मार्ग पर आकाश में इधर उधर फिरा करते हैं । पर उल्काओं का एक बड़ा भारी समूह है जो सूर्य के चारों ओर केतुओं की कक्षा में घूमता है । पृथ्वी इस उल्का क्षेत्र मे से होकर प्रत्येक तैंतीसवें वर्ष कन्या राशी पर अर्थात् १४ नवंबर के लगभग निकलती है । इस समय उल्का की झड़ी देखी जाती है । उल्काखंड जब पृथ्वी के वायुमंडल के भीतर आते हैं तब वायु की रगड़ से वे जलने लगते हैं और उनमें चमक आ जाती है । छोटे छोटे पिंड तो जलकर राख हो जाते हैं और घड़घड़ाहट का शब्द भी होता है । जब उल्का वायुमंडल के भीतर आते है और उनमें चमक उत्पन्न होती है तभी वे हमें दिखाई पड़ते हैं । उल्का पृथ्वी से अधिक से अधिक १०० मील के ऊपर अथवा कम से कम ४० मील के ऊपर से होकर जाते दिखाई पड़ते हैं । पृथ्वी के आकर्षण से ये नीचे गिरते हैं । गिरने पर इनके ऊपर का भाग गरम होता है । लंदन, पेरिस, बरलिन, वियना आदि स्थानों में उल्का के बहुत से पत्थर रखे हुए हैं ।

६. फलित ज्योति में गौरी जातक के अनुसार मंगला आदि आठ दशाओं मे से एक । यह छह वर्षों तक रहती है ।