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ओक

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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ओक संज्ञा पुं॰ [सं॰ ओकस्]

१. घर । स्थान । निवासस्थान । उ॰— (क) सूर स्याम काली पर निरतत आवत हैं ब्रज ओक ।—सूर॰, १० ।५६५ । (ख) ओक की नींव पर हरि लोक बीलोकत गंग तरंग तिहारे ।—तुलसी ग्रं॰, पृ॰ २३४ ।

२. आश्रय । ठिकाना । उ॰—(क) ओक दै बिसोक किए लोकपति लोकनाथ रामराज भयो चारिहु चरन ।—तुलसी ग्रं॰, पृ ॰— ५८० । (ख) सेनानी की सटपट, चंद्र चित चटपट, अति अति अतंकत के ओक है ।—केशव ग्रं॰, भा॰ १, पृ॰ १४५ । यौ॰—जलौक=जल में आश्रय या घरवाली । जोंक ।

३. नक्षत्रों या ग्रहों का समूह । ढेर । उ॰—घर घर नर नारी लसैं दिव्य रूप के ओक ।—मतिराम (शब्द॰) ।

५. पक्षी (को॰) ।

६. वृषल । शूद्र (को॰) ।

७. आनंद (को॰) ।

ओक ^२ संज्ञा पुं॰ [हिं॰ बूक=अंजली] अँजुरी । अँजलि । उ॰— (क) बैरी की नारि बिलख्खति गंग यों सूखि गयो मुख जीभ लुठानी । काढिये म्यान ते ओक करौं प्रिय तैं जु कह्यो तरवारि कै पानी ।—गंग॰, ११२ ।(ख) अरी पनघटवाँ आनि अरै । अटपटि प्यास बरी ब्रजमोहन पलकनि ओक करै ।—घनानंद, पृ॰ ४९७ । क्रि॰ प्र॰—लगाना । जैसे,— 'ओक लगाकर पानी पी लो' ।

ओक ^३ संज्ञा स्त्री॰ ['ओ ओ' से अनु॰+ √कृ > क] वमन करने की इच्छा । मतली ।