ओज
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]ओज ^१ वि॰ [सं॰ ओजस्] विषम । अयुग्म [को॰] ।
ओज ^३ संज्ञा पुं॰ [सं॰] [वि॰ ओजस्वी, ओजित]
१. बल । प्रताप । उ॰—तेज ओज और बल जो बदान्यता कदम्ब सा ।—लहर, पृ॰ ५६ ।
२. उजाल । प्रकाश । उ॰—कामना की किरन का जिसमें मिला हो ओज । कौन हो तुम, इसी भूले हृदय की चिर खोज । —कामायनी ।
३. कविता का वह गुण जिससे सुननेवाले के चित्त में आवेश उत्पन्न हो । विशेष—वीर और रौद्र रस की कविता में यह गुण अवश्य होना चाहिए । टवर्गी अक्षरों की अधिकता, संयुक्ताक्षरों की बहुतायत और समासयुक्त शब्दों से यह गुण अधिक आता है । परुषावृत्ति में यह गुण होता है ।
४. शरीर के भीतर के रसों का सार भाग ।
५. ज्योतिष में विषम राशियाँ (को॰) ।
६. शस्त्रकौशल ।
७. गति । वेग (को॰) ।
८. पानी (को॰) ।
९. प्रत्यक्ष होना । आविर्भाव होना (को॰) ।
१०. धातु का प्रकाश (को॰) ।
११. जननशक्ति या जीवन शक्ति (को॰) ।