कच्छप
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]कच्छप संज्ञा पुं॰ [सं॰] [स्त्री॰ कच्छपी]
१. कछुंआ ।
२. विष्णु । के २४ अवतारों में से एक । उ॰—परम रूपमय कच्छप सोई ।—मानस, १ ।२४७ ।
३. कुबेर की नव निधियों मे ं से एक निधि ।
४. एक रोग जिसमें तालु में बतौडी निकल आती है ।
५. एक यंत्र जिससे मध खींचा जाता है ।
६. कुश्ती का एक पेंच ।
७. एक नाग ।
८. विश्वामित्र का एक पुत्र ।
९. तुन का पेड़ ।
१०. दोह का एक भेद जिसमें ८ गुरु और ३२ लघु होते हैं । जैसे—एक छत्र एक मुकुट मणि, सब बरनन पर जोंइ । तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोइ ।—तुलसी (शब्द॰) ।
कच्छप अध आसन अनूप अति, डाँड़ी शेष फनी ।—सूर (शब्द॰) ।
३. तराजू की वह सीधी लकड़ी जिसमें रस्सियाँ लटककार पलड़े बाँधे जाते हैं । डंडी । उ॰—साँई मेरा बानिया सहज करें व्यवहार । बिन डाँड़ी बिन पालड़े तौलै सब संसार ।—कबीर (शब्द॰) । मुहा॰—डाँड़ी मारना = सौदा देने में कम तौलना । डाँड़ी सुभीते से रहना = बाजारभाव अनुकूल होना । उ॰—भगवान कहीं गौं से बरखा कर दे और डाँड़ी भी सुभीते से रहे तो एक गाय जरूर लेगा ।—गोदान, पृ॰ ३० ।
४. टहनी । पतली शाखा ।
५. वह लंबा डंठल जिसमें फूल या फल लगा होता है । नाल । उ॰—तेहि डाँड़ी सह कमलहि तोरी । एक कमल की दूनौ जोरी ।—जायसी (शब्द॰) ।
६. हिंडोले में लगी हुई वे चार सीधी लकड़ीयाँ या डोरी की लड़ें जिनसे लगी हुई बैठने की पटरी लटकती रहती है । उ॰—पटुली लगे नग नाग बहुरँग बनी डाँड़ी चारि । मौरा भँवै भजि केलि भूले नवल नागर नारि ।—सूर (शब्द॰) ।
७. जुलाहो की वह लकड़ी जो चरखी की थवनी में डाली जाती है ।
८. शहनाई की लकड़ी जिसके नीचे पीतल का घेरा होता है ।
९. अनवट नामक गहने का वह भाग जो दूसरी और तीसरी उँगली के नीचे इसलिये निकाला रहता है जिसमें अनवट घूम न सके ।
१०. डाँड़ खेनेवाला आदमी (लश॰) ।
११. मट्ठर या सुस्त आदमी (लश॰) । †
१२. सीधी लकीर । लकीर । रेखा । क्रि॰ प्र॰—खींचना ।
१३. लीक । मर्यादा ।
१४. सीमा । हद । उ॰—डरे लोग वन डाँड़ियाँ, सुते ही सादुल । जे सूते ही जागता, सबलाँ माथा सूल ।—बाँकी॰ ग्रं॰, भा॰ १, पृ॰ २४ ।
१५. चिड़ियों के बैठने का अड्डा ।
१६. फूल के नीचे का लंबा पतला भाग ।
१७. पालकी के दोनों ओर निकले हुए डंडे जिन्हें कहार कंधे पर रखते हैं ।
१७. पालकी ।
१९. डंडे में बँधी हुई झोली के आकार की एक सवारी जो उँचे पहाड़ों पर चलती है । झप्पान ।