कथा
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]कथा संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]
१. वह जो कही जाय । बात । विशेष—न्याय में यथार्थ निश्चय या विपक्षी के पराजय के लिये जो बात कही जाय । इसके तीन भेद हैं—बाद, जल्प, वितंडा । यौ॰—कथोपकथन=परस्पर बातचीत ।
२. धर्मविषयक व्याख्यान या आख्यान ।उ॰—हरि रह कथा विराजति बेनी ।—मानस,
१. । २ । क्रि॰ प्र॰—करना ।—कहना ।—बाँधना ।—सुनना ।—सुनाना ।—होना । —उ॰—पहिलै ताकर नावँ लै कथा करौं औगाहि । जायसी ग्रं॰, पृ॰
१. । मुहा॰—कथा उठना=कथा बंद या समाप्त होना । कथा बैठना= (१) कथा होना । (२) कथा प्रारंभ होना । कथा बैठना= कथा कहने के लिये किसी व्यास को नियुक्त करना । यौ॰—कथामुख । कथारंभ । कथोदय । कथोद्धात=कथा का प्रारंभिक भाग । कथापीठ=कथा का मुख्य भाग ।
३. उपन्यास का एक भेद । विशेष—इसमें पूर्वपीठिका और उत्तरपीठिका होती है । पूर्वपीठिका में एक वक्ता और एक या अनेक बनाए जाते हैं । श्रोता की ओर से ऐसा उत्साह दिखलाया जाता है कि पढ़नेवालों को भी उत्साह होता है । वक्ता के मुँह से सारी कहानी कहलाई जाती है । कथा की समाप्ति में उत्तरपीठिका होती है । इसमें वक्ता और श्रोता का उठ जाना आदि उत्तरदशा दिखाई जाती है ।
४. बात । चर्चा । जिक्र । क्रि॰ प्र॰—उठना ।—चलना ।—चलाना ।
५. समाचार । हाल ।
६. बादविवाद । कहासुनी । झगड़ा । मुहा॰—कथा चुकाना=(१) झगड़ा मिटाना । मामला खतम करना । (२) काम तमाम करना । मार डालना । उ॰— मेघनादै रिस आई, मंत्र पढ़ि कै चलाइयौ बाण ही में नाग फाँस बड़ी दुख दाइनी । ...... काहे की लराई, उन कथा की चुकाई जैसे पारा मारि डारत है पल में रसाइनी ।—हनुमान (शब्द॰) ।