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कन्ना

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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कन्ना ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ कर्ण, प्रा॰ कण्ड] [स्त्री॰ कन्नी]

१. पतंग का वह डोरा जिसका एक छोर काँप और ठंड्ढ़े के मेल पर और दूसरा पुछल्ले के कुछ ऊपर बाँधा जाता है । इस तागे के ठीक बीच में उड़ानेवाली डोर बाँधी जाती है । क्रि॰ प्र॰—बाँधना ।—लगाना ।—साधना । मुहा॰—कन्ने ठीले होना या पड़ना=(१) थक जाना । शिथिल होना । ढीला पड़ना । (२) जोर का टूटना । शक्ति और गर्व में रहना । मानमर्दन होना । कन्ने से कटना=(१) पतंग का कन्ने के स्थान से कट जाना । (२) मूल से ही विच्छिन्न हो जाना ।

२. पतंग का छेद जिसमें कन्ना बाँधा जाता है । क्रि॰ प्र॰—छेदना ।

३. किनारा । कोंर । औंठ ।

४. जूते के पंजे का किनारा । जैसे,—मेरे जूते का कन्ना निकल गया ।

५. कोल्हू की कातर के एक छोर के दोनों ओर लगी हुई लकड़ियाँ जो कोल्हू से भिड़ी रहती है और उससे रगड़ खाती हुई घूमती हैं । इन लकड़ियों में एक छोटी और दूसरी बड़ी होती है ।

कन्ना ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ कण]

१. चावल का कन ।

२. चावल की धल जो चावल के घिसने या छोटे छोटे कणों के चूर्ण हो जाने पर चावल में मिली रह जाती है ।

कन्ना ^३ संज्ञा पुं॰ [सं॰ कर्णक=वनस्पति का एक रोग, प्रा॰ कणाअ] वनस्पति का एक रोग जिससे उसकी लकड़ी तथा फल आदि में कीड़े पड़ जाते हैं, लकड़ी या फल खोखले होकर तथा सड़कर बेकाम हो जाते हैं ।

कन्ना ^४ वि॰ [स्त्री॰ कत्री] (लकड़ी या फल) जिसमें कन्ना लगा हो । काना । जैसे,—कन्ना भंटा, कन्नी ईख ।