करण
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]करण ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. व्याकरण में वह कारक जिसके द्वारा कर्ता क्रिया को सिद्ध करता है । जैसे,—छड़ी से साँप मारो । इस उदाहरण में 'छड़ी' 'मारने' का साधक है अतः उसमें करण का चिह्न 'से' लगाया गया है ।
२. हथियार । औजार ।
३. इंद्रिय । उ॰—विषय करन सुर जीव समेता । सकल एक से एक सचेता ।—तुलसी (शब्द॰) ।
४. देह ।
५. क्रिया । कार्य । उ॰—कारण करण दयालु दयानिधि निज भय दीन डरे ।—सूर (शब्द॰) ।
६. स्थान ।
७. हेतु ।
८. असाधारण कारण ।
९. ज्योतिष में तिथियों का एक विभाग । विशेष—एक एक तिथि में दो दो करण होते हैं । करण ग्यारह हैं जिनके नाम ये हैं—वव, वालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पद, किंतुघ्न और नाग । इनके देवता यथाक्रम ये हैं—इंद्र, कमलज, मित्र, अर्यमा, भू, श्री, यम, कलि, वृष, फणी, मारुत । शुक्ल प्रतिप्रदा के शेषार्ध से कृष्णों चतुर्दशी के प्रथमार्ध तक वव आदि प्रथम सात करणों की आठ आवृत्तियाँ होती हैं । फिर कृष्ण चतुर्दशी के शेषार्ध से शुक्ल प्रतिप्रदा के प्रथमार्ध तक शेष चार करण होते हैं ।
१०. नृत्य में हाथ हिलाकर भात बताने की क्रिया ।
करण ^२ वि॰ [सं॰] करनेवाला । उ॰—दादू दुख दूरि करण, दूजा नहिं कोई ।—दादू॰, पृ॰ ५३ ।
करण ^३ पु संज्ञा पुं॰ [सं॰ कर्ण]
१. कान । उ॰—शंभु शाज्ञसन गुण करौं करणालंबित आज ।—केशव (शब्द॰) ।
२. कौरव पक्ष के एक महारथी जो कुंती की कुमारी अवस्था में उत्पन्न माने जाते हैं । कर्ण । उ॰—मारयो करण गंगसुत द्रौना । सबको मारि कियो दल सूना ।—कबीर सा॰, पृ॰ ५० ।