करवट
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]करवट ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ करवर्त, प्रा॰ करवट्ट] हाथ के बल लेटने की मुद्रा । वह स्थिति जो पार्शव के बल लेटने से हो । उ॰— गइ मुरछा रामहिं सुमिरि, नृप फिरि करवट लीन्ह । सचिव राम आगमन कहि विनय समय सम कीन्ह । — तुलसी (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—फिरना । —फेरना । —बदलना । —लेना । मुहा॰—करवट बदलना = (१)दूसरी ओर घूमकर लेटना । (२) पलटा खाना । और का और कर बैठना । (३) एक ओर से दूसरी ओर जाना । एक पक्ष छोडकर दूसरे पक्ष में हो जाना । करवट लेना = (१) दूसरी ओर फिर कर लेटना । मुँह फेरना । पीठ फेरना । (२) और का और हो जाना । पलट जाना । (३) बेरुख होना । फिर जाना । विमुख होना । करवट खाना या होना = (१) उलट जाना । फिर जाना । (२) जहाज का किनारे लग जाना । (३) जहाज का टेढ़ा होना वा झुक जाना । — (लश॰) । करवट न लेना = किसी कर्तव्य का ध्यान न रखना । दम न लेना । साँस न लेना । सन्नाटा खींचना । जैसे,— इतने दिन रुपये लिए हो गए, अबतक करवट न ली । करवटें बदलना = बार बार पहलू बदलना । बिस्तर पर बेचैन रहना । तड़पना । विकल रहना । करवटों में काटना = सोने का समय व्याकुलता में बिताना ।
करवट ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ करपत्र, प्रा॰ करवत्त]
१. एक दाँतेदार औजार जिससे बढ़ई बड़ी बड़ी लकड़ियाँ चीरते हैं । करवत । आरा ।
२. पहले प्रयाग, काशी आदि स्थानों में आरे वा चक्र रहते थे जिनके नीचे लोग फल की आशा से, प्राण देते थे, ऐसै आरे वा चक्र को 'करवट' कहते थे, जैसे, 'काशिकरवट' । मुहा॰—करवट लेना = करवट कै नीचे सिर कटाना । उ॰— तिल भर मछली खाइ जो कोटि गऊ दे दान । काशी करवट लै मरै तौ हू नरक निदान । — (शब्द॰) ।
करवट ^३ संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार का बड़ा वृक्ष । जसूँद । नताउल । विशेष— इसका गोंद जहरीला होता है और जिसमें तीर जहरीले करने के लीये बुझाए जाते हैं ।