कलश

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

कलश संज्ञा पुं॰ [सं॰] [स्त्री॰ अल्पा॰ कलशी]

१. घड़ा । गगरा ।

२. तंत्र के अनुसार वह घडा या गगरा जो व्यास में कम से कम ५० अंगुल और उँचाई में १३ अंगुल हो और जिसका मुँह ८ अंगुल से कम न हो ।

३. मंदिर, चैत्य आदि का शिखर ।

४. मंदिर के शिखर पर लगा हुआ पीपल, पत्थर आदि का कँगूरा ।

५. खपड़ैल के कानों पर हुआ मिट्टी का कँगूरा ।

६. एक प्रकार का मान जो द्रोण या आठ सेर के बराबर होता था ।

७. चोटी । सिरा ।

८. प्रधान अंग । श्रेष्ठ व्यक्ति । जैसे, —रघुकुलकलश ।

९. काश्मीर का एक राजा जिसका नाम रणादित्य भी था । विशेष—यह ९५७ शकाब्द में हुआ था और बड़ा कुमार्गी तथा अन्यायी था । इसने अपने पिता पर बहुत से अत्याचार किए थे और अपनी भगिनी तक का सतीत्व नष्ट किया था । मंत्रियों ने इसे सिंहासन से उतारकर इसके पिता को गद्दी पर बैठाया था ।

१०. कोहल मुनि के मत से नृत्य की एक वर्तना ।

११. समुद्र (को॰) । यौ॰—कलशांभोधि, कलशार्णव, कलशोदधि= (१) समुद्र । (२) क्षीरसागर ।