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कलि

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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कलि संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. बहेड़े का फल या बीज । विशेष—वामन पुराण में ऐसी कथा है कि जब दमयती ने नल के गले में जयमाल डाली, तब कलि चिढ़कर नल से बदला लेने के लिये बहेड़े के पेड़ों में चल गया, इससे बहेड़े का नाम 'कलि' पड़ा ।

२. पासे कै खेल में वह गोटी जो उठी न हो । उ॰—कलि [नामक पासा] सो गया है, द्वापर स्थान छोड़ चुका है, त्रेता अभी खड़ा है, कृत चल रहा है [तेरी सफलता की संभावना है] परिश्रम करता जा ।—भा॰ प्रा॰ लि॰, पृ॰ ११ । विशेष—ऐतरेय ब्राह्मण से पता लगता है कि पहले आर्य लोग बहेड़े के फलों से पासा खेलते थे ।

३. पासे का वह पार्श्व जिसमें एक ही बिंदी हो ।

४. कलह । विवाद । झगड़ ।

५. पाप ।

६. चार युगों में से चौथा युग जिसमें देवताओं के १२०० वर्ष या मनुष्यो के ४३२००० वर्ष होते हैं । विशेष—पुराणों के मत से इसका प्रारंभ ईसा से ३१०२ वर्ष से पूर्व माना जाता है । इसमें दुराचार और अधर्म की अधिकता कहीं गई ।

७. छंद में टगण का एक भेद जिसमें क्रम से दो गुरु और दो लघु होते हैं (/?/) ।

८. पुराण के अनुसार क्रोध का एक पुत्र जो हिंसा से उत्पन्न हुआ था । इसकी बहन दुरुक्ति और दो पुत्र, भय और मृत्यु हैं ।

९. एक प्रकार के देव गंधर्व जो कश्यप और दक्ष की कन्या से उत्पन्न हैं ।

१०. शिव का एक नाम ।

११. सूरमा । वीर । जवाँमर्द ।

१२. तरकश ।

१३. क्लेश । दुख ।

१४. संग्राम । युद्ध । उ॰— कलि कलेश कलि शूरमा कलि निषंग संग्राम । कलि कलियुग यह और नहिं केवल केशव नाम ।—नंददास (शब्द॰) । यौ॰—कलिकर्म = संग्राम । युद्ध ।

कलि ^२ वि॰ श्याम । काला । उ॰—श्वेत लाल पीरे युग युग में । भे कलि आदि कृष्ण कलियुग में ।—गोपाल (शब्द॰) ।

कलि ^३ क्रि॰ वि॰ [सं॰ कल्य] दे॰ 'कल' । उ॰—तब कहै कुँअर सामंत सम, कलि आषेटक रंग । भयौ सुरसमै एक भल, आलस ही में गंग ।—पृ॰ रा॰, ६ । १४१ ।

कलि ^४ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]

१. कली । उ॰—जैसे नव ऋति नव कलि आकुल नव अंजलि ।—अर्चना, पृ॰ २५ ।

२. वीणा का मूल (को॰) ।

कलि ^२ पुं॰ [सं॰]

१. एक प्रकार की मछली जिसका मांस भारी, चिकना, बलकारक और स्वादिष्ट होता है ।

२. शराव । पात्र । भोजन (को॰) ।