कल्पवृक्ष

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

कल्पवृक्ष संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. पुराणनुसार देवलोक का एक वृक्ष जो समुद्र मथने समय समुद्र से निकला हुआ और १४ रत्नों में माना जातता है । यह इंद्र को दिया गया था । विशेष— हिंदुओं का विश्वास है कि इससे जिस वस्तु की प्रार्थना की जाय, वही यह देता है । इसका नाश कल्पांत तक नहीं होता । इसी प्रकार का एक पेड़ मुसलमानों के स्वर्ग में भी है, जिसे वे तूबा कहते हैं । पर्या॰— कल्पद्रुम । कल्पतरु । सुरतरु । कल्पलता । देवतरु ।

२. एक वृक्ष जो संसार में सब पेड़ों से ऊँचा, घेरदार और दीर्घजीवी होता है । विशेष— अफ्रीका के सेनीगाल नामक प्रदेश में इसका एक पेड़ है जिसके विषय में विद्वानों का अनुमान है कि वह ५२०० वर्ष का है । यह पेड़ ४० से लेकर ७० फुट तक ऊँचा होता है । सावन भादों में यह पत्तों और फूलों से लदा हुआ दिखाई पड़ता है । फूल प्रायः सफेद रंग होते हैं और चार छह इँच तक चौड़े होते हैं । उनसे पके संतरों की महक आती है । फूलों के झड़ जाते पर कद्दू के आकार के लगते हैं, जो एक फुट लंबे होता हैं । फल पकने पर खटमिट्ठे होते हैं, जिन्हें बंदर बहुत खाते हैं । मिस्र देश के लोग फल का रस निकालकर और उसंमें शक्कर मिलाकर पीते हैं । इसका गूदा पेचिश में देते हैं; इसके बीज दवा के काम में आते हैं । कहीं कहीं इसकी पत्तियों की बुकनी भोजन में मिलाकर खाते हैं । इसकी लकड़ी बहुत मजबूत नहीं होती, इसी से इसमें बड़े बड़े खोंड़रे पड़ जाते हैं । इसकी छल के रेशे की रस्सी बनती है और एक प्रकार का कपड़ा भी बुना जाता है । यह वृक्ष भारत वर्ष में मद्नास, बंबई और मध्यप्रदेश में बहुत मिलता है । बरसात में बीज बोने से यह लगाता है और बहुत जल्दी बढ़ता है । इसे गोरख इमली भी कहते हैं ।