कसी
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]कसी ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ कशा=रस्सी]
१. पृथ्वी नापने की एक रस्सी जो दो कदम या ४९ १/४ इंच की होती है ।
कसी ^२ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ कषण=खरोचना, खोदना] हल की कुसी । लांगूल । फाल ।
कसी ^३ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ कशुक] एक पौधा जिसे संस्कृत में गवेधुक और कशुक कहते हैं । विशेष—वैदिक काल में यज्ञों में इसके चरु का प्रयोग होता था । इस समय इसकी खेती भी होती थी । यद्यपि आजकल मध्य प्रदेश, सिक्किम, आसाम और बरमा की जंगली जातियों के अतिरिक्त इसकी खेती कोई नहीं करता, फिर भी यह समस्त भारत, चीन, जापान, बरमा, मलाया, आदि देशों में वन्य अवस्था में मिलती है । इसकी कई जातियाँ है, पर रंग के विचार से इसके प्रायः दो भेद होते हैं । एक सफेद रंग की, दूसरी मटमैली या स्याही लिए हुए होती है । यह वर्षा ऋतु में उगती है । इसकी जड़ में दो तीन बार डालियाँ निकलती हैं । इसके फल गोल, लंबोतरे और एक और नुकीले होते हैं । इनके बीच सुगमता से छेद हो सकता है । छिलका इनका कड़ा और चिकना होता है । छिलके के भीतर सफेद रंग की गिरी होती है जिसके आटे की रोटी गरीब लोग खाते हैं । इसे भूनकर सत्तु भी बनाते हैं । छिलका उतर जाने पर इसकी गिरा के टुकड़ों को चावल के साथ मिलाकर भात की तरह उबालकर खाते हैं । यह खाने में स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक होती है । जापान आदि में इसके मावे से एक प्रकार का मद्य भी बनाया जाता है । इसका बीज औषध के कम आता है । इसके दानों को गूँथकर माला बनाई जाती है । नेपाल के थारू इसके बीज को गूँथकर टोकरों की झालर बनाते हैं । पर्या॰—कोड़िल्ला । केस्सी । कसेई ।