काव्य

विक्षनरी से

हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

काव्य संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. वह वाक्य रचना जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो । वह कला जिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है । विशेष—रसगंगाधर में 'रममीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा है । अर्थ की रमणीयता के अंतर्गत शब्द की रमणीयता (शब्दलंकार) भी समझकर लोग इस लक्षण को स्वीकार करते हैं । पर 'अर्थ' की 'रमणीयता' कई प्रकार की हो सकती है । इससे यह लक्षण बहुत स्पष्ट नहीं है । साहित्य दर्पणाकार विश्वनाथ का लक्षण ही सबसे ठीक जँचता है । उसके अनुसार 'रसात्मक वाक्य ही काव्य है' । रस अर्थात् मनोवेगों का सुखद संचार की काव्य की आत्मा है । काव्य- प्रकाश में काव्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र । ध्वनि वह है जिस,में शब्दों से निकले हुए अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो । गुणीभूत ब्यंग्य वह है जिसमें गौण हो । चित्र या अलंकार वह है जिसमें बिना ब्यंग्य के चमत्कार हो । इन तीनों को क्रमशः उत्तम, मध्यम, और अधम भी कहते हैं । काव्यप्रकाशकार का जोर छिपे हुए भाव पर अधिक जान पड़ता है, रस के उद्रेक पर नहीं । काव्य के दो और भेद किए गए हैं, महाकाव्य और खंड काव्य । महाकाव्य सर्गबद्ध और उसका नायक कोई देवता, राजा या धीरोदात्त गुंण संपन्न क्षत्रिय होना चाहिए । उसमें श्रृंगार, वीर या शांत रसों में से कोई रस प्रधान होना चाहिए । बीच बीच में करुणा; हास्य इत्यादि और रस तथा और और लोगों के प्रसंग भी आने चाहिए । कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए । महाकाव्य में संध्या, सूर्य, चंद्र, रात्रि, प्रभात, मृगया, पर्वत, वन, ऋतु सागर, संयोग, विप्रलंभ, मुनि, पुर, यज्ञ, रणप्रयाण, विवाह आदि का यथास्थान सन्निवेश होना चाहिए । काव्य दो प्रकार का माना गया है, दृश्य और श्रव्य । दृश्य काब्य वह है जो अभिनय द्वारा दिखलाया जाय, जैसे, नाटक, प्रहसन, आदि जो पढ़ने और सुनेन योग्य हो, वह श्रव्य है । श्रव्य काव्य दोट प्रकार का होता है, गद्य और पद्य । पद्य काव्य के महाकाव्य और खंडकाव्य दो भेद कहे जा चुके हैं । गद्य काव्य के भी दो भेद किए गए हैं । कथा और आख्यायिका । चंपू, विरुद और कारंभक तीन प्रकार के काव्य और माने गए है ।

२. वह पुस्तक जिसमें कविता हो । काव्य का ग्रंथ ।

३. शुक्राचार्य ।

५. रोला छंद का एक भेद, जिसके प्रत्येक, तरण की ११ वीं मात्रा लघु पड़ती है । किसी किसी के मत से इसकी छठी, आठवीं, और दसवीं मात्रा पर यति होनी चाहिए । जैसे— अंजनि सुत यह दशा देखि अतिशै रिसि पाग्यो । बेगि जाय लव निकट शिला तरु मारन लाग्यो । खंडि तिन्हें सियपुत्र तीर कपि के तन मारे । बान सकल करि पान कीश निःफल करि डारे ।

काव्य ^२ वि॰

१. कवि की विशेषताओं से युक्त ।

२. प्रशंसनीय । कथनीय (को॰) ।

काव्य में वाक्पतिराज ने, जो आठवीं शताब्दी में था, इसका वर्णन किया है । राजतरंगिणी में विंध्यवासिनी को भ्रमरवासिनी नाम से लिखा है । जिस स्थान पर वह मूर्ति है, वह स्थान विंध्याचल कहलाता है ।