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कुम्भ

विक्षनरी से

प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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कुंभ संज्ञा पुं॰ [सं॰ कुम्भ]

१. मिट्टी का घड़ा । घट । कलश । उ॰— गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है गढ़ गढ़ काढै़ खोट । अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ।—कबीर सा॰, सं॰, पृ॰ ३ । यौ॰—कुभंज । कुभंकर्ण । कुभंकार ।

२. हाथी के सिर के दोनों और ऊपर उभडे़ हुए भाग । उ॰— मत्त नाग तम कुंभ विदारी । ससि केसरी गगन बनचारी । तुलसी (शब्द॰) ।

३. एक राशि का मान जो दसवीं मानी जाती है । विशेष—यह धनिष्ठा नक्षत्र के उत्तरार्द्ध और शतभिष तथा पूर्व भातप्रद के तृतीय चरण तक उदय रहती है । इसका उदय- काल ३दंड ५८ पल है । यह राशि शीर्षोदय है ।

४. एक मान जो दो द्रौण या ६४ सेर का होता है । इसे सूर्य भी कहते हैं । किसी किसी के मत से बीस द्रौण का भी एक कुंभ होता है । उ॰—दो द्रोणों का शूर्प और कुंभ कहा है । — शाड्ग॰ सं॰, पृ॰ ९ ।

५. योगशास्त्र के अनुसार प्राणायम के तीन भागों में से एक । कुंभक ।

६. एक पर्व का नाम जो प्रति १२ वें वर्ष लगता है । इस अवसर पर हरद्वार, प्रयाग नासिक आदि में बड़ा मेला लगता है । यह पर्व इसलिये कुंभ कहलाता है कि जब सूर्य कुंभराशि का होता है तभीं यह पड़ता है ।

७. मिट्टी आदि का वह घड़ा जो देवालयों के शिखर पर तथा घरों की मुडे़री पर शोभा के लिये लगाया जाता है । कलश

८. गुग्गुल

९. वह पुरुष जिसने वेश्या रख ली हो । वेश्यापति । यौ॰—कुंभदासी ।

१०. जैन मतानुसार वर्तमान अवसपिणी के १९ वें अर्हत का नाम ।

११. बौद्धों के अनुसार बुद्धदेव के गत चौबीस जन्मो ं में से एक जन्म का नाम ।

१२. एक राग का नाम जो श्री राग का आठवाँ पुत्र माना जाता है । विशेष—यह संपूर्ण जाति का राग है और संध्या समय रात के पहले पहर में गाया जाता है । संगीत दामोदर में इसे सरस्वती और धनाश्री रागिनियों को योग से बना हुआ संकर राग माना है ।

१३. एक दैत्य का नाम । यह एक दानव था और प्रहल्लाद का पुत्र था ।

१४. एक राक्षस का नाम जो कुंभकर्ण का पुत्र था ।

१५. एक बानर का नाम ।

१६. हृदय का एक प्रकार का रोग (को॰) ।

१७. एक पेड का नाम जो बंगाल, मद्रास, आसाम और अवध के जंगल में होता है । कुंबी । कुंभी । विशेष—इसकी लकड़ी मजबूत होती है । छाल काले रंग की होती है । लकडी़ मकान और आरायशी चीजें बनाने के काम में आती हैं और पानी में नहीं सड़ती । इसकी छाले रेशेदार होती हैं और उससे रस्सी बटी जाती है । यह औषधों में भी काम आती है । इसके फल को खुन्नी कहते हैं, जिसे पंजाबी स्वयं खाते तथा पशुओं को भी खिलाते हैं । इसके पत्ते माघ, फागुन में झड़ जाते हैं । इसे कुंबी और अर्जमा, अरजम भी कहती है ।