कोख

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

कोख संज्ञा पुं॰ [सं॰ कुक्षि , प्रा॰, कुक्खि]

१. उदर । जठर । पेट ।

२. पसलियों के नीचे, पेट के दोनों बगल का स्थान । मुहा॰— कोखे लगना या सटना=पेट खाली रहने या बहुत अधिक भूख लगने के कारण पेट अंदर धँस जाना ।

३. गर्भाशय । विशेष— इस अर्थ के सब मुहावरों और यौगिक शब्दों का प्रयोग केवल स्त्रियों के लिये होता है । यौ॰— कोखबंद । कोखजली । मुहा॰— कोख उजड़ना =(१) संतान मर जाना । बालक मर जाना । (२) गर्भ गिर जाना । कोख बंद होना= बंध्या होना । संतति उत्पन्न करने के अयोग्य होना । कोख या कोख माँग से ठंड़ी या भरी पूरी रहना=बालक या, बालक और पति का सूख देखते रहना—(आसीस) । कोख मारी जाना=दे॰ "कोख बंद होना' । कोख की बीमारी या रोग= संतति न होने या होकर मर जाने का रोग । कोख की आँच=संतान का वियोग । संतान का कष्ट । जैसे —सब दु:ख सहा जाता है, पर कोख की आँच नहीं सही जाती । कोख खुलना=बाँझपन दूर होना । उ॰— पर मिला पूत जो सपूत नहीं । क्या खुली कोख जो न भाग खुला ।—चोखे॰, पृ॰, ३९ ।