कोढ़
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]कोढ़ संज्ञा पुं॰ [सं॰ कुष्ठ] [वि॰ कोढ़ी] एक प्रकार का रक्त और त्वचा संबंधी रोग जो संक्रामक और पुरुषानुक्रमिक होता है । विशेष—वैद्यक के अनुसार कोढ़ १८ प्रकार का होती है जिनमें से कापाल, उदुंबर, मंडल, सिध्म, काकणक, पुंडरीक और ऋक्षजिह्व नामक सात प्रकार के कोढ़ महाकुष्ठ कहे और असाध्य समझे जाते हैं; और एक कुष्ठ, गजचर्म, चर्मदल, विचर्चिका, विपादिका, पामा, कच्छू, दद्रु, विस्फोट, किटिंम और अलसक नामक शेष ग्यारह प्रकार के कोढ़ क्षुद्र कुष्ठ कहे और साध्य समझे जाते हैं । कोढ़ होने से पहले चमड़ा लाल हो जाता है और उसमें बहुत जलन होती है । गलित कोढ़ से हाथ पैर की उँगलियाँ गल गलकर गिर जाती हैं । डाक्टरों के मत से यह सर्वांगव्यापी रोग है और श्लीपद आदि भी इसी के अंतर्गत हैं । इस रोग से पीड़ित मनुष्य घृणित और अस्पृश्य समझा जाता है । मुहा॰—कोढ़ चूना या टपकना=कोढ़ के कारम अंगों का गल गलकर गिरना । कोढ़ की खाज या कोढ़ में खाज=दुःख पर दुःख । विपत्ति पर विपत्ति । उ॰—एक तो कराल कलिकाल सूलमूल तामें, कोढ़ में की खाजु सी समीचरी है मीन की ।— तुलसी (शब्द॰) ।