क्रि॰

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

क्रि॰ प्र॰—मारना=जाहाज का लहराना । जहाज का डगमगाना ।

क्रि॰ प्र॰—करना । —होना ।

क्रि॰ प्र॰—करना ।—फरमाना ।—रखना । मुहा॰—इनायत करना=(१) कृपा करके देना । जैसे,जरा कलम तो इनायत कीजिए ।

२. रहने देना । बाज रखना । वंचित रखना (व्यंग्य) । जैसे,—इनायत कीजिए, मैं आपकी चीज नहीं लेता ।

क्रि॰ प्र॰—न करना । विशेष—यह शब्द प्रायः शोक और पीड़ा के अवसरों पर अनायास मुँह से निकलता है ।

क्रि॰ प्र॰—डालना ।—पड़ना ।

३. पेच । चक्कर । समस्या । व्यग्रता । चिंता । तरददुद । मुहा॰—उलझन में डालना = झंझट में फँसाना । बखेड़ें में डालना । जैसे,—तुम क्यों व्यर्थ अपने को उलझन में डालते हो । उलझन में पड़ना = फेर में पड़ना । चक्कर में पड़ना । आगा पीछा करना ।

क्रि॰ प्र॰—करना ।—होना ।

क्रि॰ प्र॰—करना ।—दिखलाना ।

३. कुटिल भाव । द्वेष । विरोध । उ॰—या दुनियाँ में आइके छाँड़ि देइ तू ऐंठ ।—कबीर सा॰, सं॰, पृ॰ ६७ । क्रि॰ प्र॰—पड़ना ।—रखना ।

क्रि॰ प्र॰—चढ़ना=आँच पर रखा जाना ।—चढ़ाना=आँच पर रखना ।

क्रि॰ प्र॰—आना ।

२. प्रलय ।

३. आफत । विपत्ति । हलचल । खलबली । उपद्रव । क्रि॰ प्र॰—आना ।—उठना । उठाना ।—टूटना ।—ढाना ।—बरपा करना ।—मचना ।—मचाना ।—लाना ।—होना । मुहा॰—कयामत का=(१) गजब का । हद दरजे का । (२) अत्यंत अधिक प्रभाव डालनेवाला । कयामत का सामना होना=भारी संकट आ जाना । उ॰—और मै तो थर थर काँपती थी कि जो कहीं उनको खबर हो गई तो कयामत ही का समाना होगा ।—सैर कुं॰, पृ॰ १९ । कयामत बरपा करना=कयामच ढाना । प्रलय मचाना । आफत लाना । उ॰—सर्व कामत गजब की चाल से तुम । क्यों कयामत चले बपा करके ।—भारतेंदु ग्रं॰, भा॰ २, पृ॰ २२० ।

क्रि॰ प्र॰—पाना=निश्चित होना । ठहरना । तै पाना । जैसे,— उन दोनों के बीच यह बात करार पाई है ।

क्रि॰ प्र॰.— करना ।—चलना ।—होना ।—में आना । मुहा॰—काबू में करना या काबू करना = वश में करना । काबू चढना काबू पर चढना = अधिकार में आना । दाँव पर चढना । काबू पाना = अधिकार पाना । दाँव पाना ।

क्रि॰ प्र॰—आना ।—लाना ।—होना । मुहा॰—खराबी में पड़ना = विपत्ति या दुर्दशा में फँसना ।

३. गंदगी । गलीज (कहारों की बोली) । विशेष—जब अगला कहार कहीं विष्ठा आदि पड़ा देवता है, तब पिछले कहार का सचेत करने के लिये इस शब्द का प्रयोग करता है ।

क्रि॰ प्र॰—करना ।—होना । विशेष—आयुर्वेद के दो विभाग हैं, एक तो निदान जिसमें पह- चान के लिये रोगों के लक्षण आदि का वर्णन रहता है और दूसरा चिकित्सा जिसमें भिन्न भिन्न रोगों के लिये भिन्न भिन्न औषधों की व्यवस्था रहती है । चिकित्सा तीन प्रकार की मानी गई है-दैवी, आसुरी और मानुषी । जिसमें पारे की प्रधानता हो वह दैवी, जो छह रसों के द्वारा की जाय वह मानुषी और जो अस्त्र प्रयोग या चीर फाड़ के द्वारा हो वह आसुरी कहलाती है ।

२. वैद्य का व्यवसाय या काम । बैदगी ।

क्रि॰ प्र॰—उड़ना ।—उठना ।—फैलना ।—निकलना । मुहा॰—चिरायँध फैलना = बदनामी फैलना ।

क्रि॰ प्र॰—देना । = स्वल्प वेतनभोगी कर्मचारियों को जाड़े के कपड़े या उसके विनिमय में धन देना ।—मिलना ।

क्रि॰ प्र॰—आना ।—छूटना ।

क्रि॰ प्र॰—देना । होना ।

६. † वह राजकुमार जो राजा के पीछे राज्य का उत्तराधिकारी होनेवाला हो । युवराज । जैसे, टीका साहब ।

७. आधिपत्य का चिह्न । प्रधानाता की छाप । जैसे,—क्या तुम्हारे ही माथे पर टीका है और किसी को इसका अधिकार नहीं है? मुहा॰—टीके का = विशेषता रखनेवाला । अनोखा । जैसे,—क्या वही एक टीके का है जो सब कुछ रख लेगा ?—(स्त्रि॰) ।

८. वह भेंट जो राजा या जमींदार को रेयत या असामी देते हैं ।

९. सोने का एक गहना जिसे स्त्रियाँ माथे पर पहनती हैं । १० घोड़े की दोनों आँखों के बीच माथे का मध्य भाग जहाँ भँवरी होती है ।

११. धब्बा । दाग । चिह्न ।

१२. किसी रोग से बचाने के लिये उस रोग के चेप या रस से बनी ओषधि को लेकर किसी के शरीर में सुइयों से चुभाकर प्रविष्ट करने की क्रिया । जैसे, शीतला का टीका, प्लेग का टीका । विशेष—टीके का व्यवहार विशेषत: शीतला रोग से बचाने के लिये ही इस देश में होता है । पहले इस देश में माली लोग किसी रोगी की शीतला का नीर लेकर रखते थे और स्वस्थ मनुष्यों के शरीर में सुई से गोदकर उसका संचार करते थे । संथाल लोग आग से शरीर में फफोले डालकर उनके फूटने पर शीतला का नीर प्रविष्ट करते हैं । इस प्रकार मनुष्य को शीतला के नीर द्वारा जो टीका लगाया जाता है, उसमें ज्वर वेग से आता है, कभी कभी सारे शरीर में शीतला भी आती हैं और डर भी रहता है । सन् १७९८ में डा॰ जेनर नामक एक अँगरेज ने गोथन में उत्पन्न शीतला के दानों के नीर से टीका लगाने की युक्ति निकाली जिसमें ज्वर आदि का उतना प्रकोपनहीं होता और न कीसी प्रकार का भय रहता है । इंग्लैंड में इस प्रकार के टीके से बड़ी सफलता हुई और धीरे धीरे इस टीके का व्यवहार सब देशों में फैल गया । भारतवर्ष में इस टीके का प्रचार अंग्रेजी शासनकाल में हुआ है । कुछ लोगों का मत है कि गोथन शीतला के द्वारा टीका लगाने की युक्ति प्राचीन भारतवासियों को ज्ञात थी । इस वात के प्रमाण में धन्वंतरि के नाम से प्रसिद्ध एक शाक्त ग्रंथ का एक श्लोक देते हैं— धेनुस्तन्यमसूरिका नराणां च मसूरिका । तज्जलं बाहुमूलाच्च शस्त्रांतेन गृहीतवान् । । बाहुमूले च शस्त्राणि रक्तोत्पत्तिकराणि च । तज्जलं रक्तमिलितं स्फोटकज्वर संभवम् । ।

क्रि॰ प्र॰— उठाना । मुहा॰— डंडा खींचना = चारदीवारी उठाना ।

क्रि॰ प्र॰—बाँधना ।

२. वह बड़ा साफा जिसका एक फेंट डाढ़ी और गाल से होता हुआ जाता हैं ।

३. वह कपड़ा जिससे मुरदे का मुँह इसलिये बाँध देते हैं जिससे कफन सरकने से मुँह खुल न जाय ।

क्रि॰ प्र॰—करना ।—होना ।

२. आवश्यकता । चाह । क्रि॰ प्र॰—होना ।

क्रि॰ प्र॰—खेलना ।

३. ताश का खेल ।

४. कड़े कागज या दफ्ती की चकती जिसपर सीने का तागा लपेटा रहता है ।

क्रि॰ प्र॰—देना ।—लगाना ।

२. थप्पड़ । तमाचा । पूरे पंजे का आघात । जैसे, शिर की थाप, पहलवानों की थाप । क्रि॰ प्र॰—मारना ।—लगाना ।

३. वह चिह्न जो किसी वस्तु के भरपूर बैठने से पड़े । एक वस्तु पर दूसरी वस्तु के दाब के साथ पड़ने से बना हुआ निशान । छाप । जैसे, दीवार पर गीले पँजे का थाप, बालू पर पैर की थाप । क्रि॰ प्र॰—देना ।—पड़ना ।— लगना ।

४. स्थिति । जमाव ।

५. किसी की ऐसी स्थिति जिसमें लोग उसका कहना मानें, भय करें तथा उसपर श्रद्धा विश्वास रखें । महत्वस्थापन । प्रतिष्ठा । मर्यादा । धाक । साक । उ॰— कहै पदमाकर सुमहिमा मही में भई महादेव देवन में बाढ़ी थिर थाप है ।— पद्माकर (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—जमना ।—होना ।

६. मान । कदर । प्रमाण । जैसे,— उनकी बात की कोई थाप नहीं ।

७. पंचायत ।

८. शपथ । सौगंध । कसम । मुहा॰— किसी की थाप देना = किसी की कसम खाना । शपथ देना ।

क्रि॰ प्र॰—देना ।

२. पटके जाने की क्रिया या भाव । क्रि॰ प्र॰—खाना ।

३. भूमि पर गिरकर लोटने या पछाडे़ खाने की क्रिया या अवस्था । लोटनिया । पछाड़ । क्रि॰ प्र॰—खाना ।

क्रि॰ प्र॰—जमाना ।—देना ।—लगाना ।

क्रि॰ प्र॰—कहना ।—करना ।

३. किसी शास्त्र, ग्रंथ, व्यवहार आदि की विशिष्ट संज्ञा । ऐसा शब्द जो शास्त्रविशेष में किसी निर्दिष्ट अर्थ या भाव का संकेत मान लिया गया हो । ऐसा शब्द जो स्थान- विशेष में ऐसे अर्थ में प्रयुक्त हुआ या होता हो जो उसके अवयवों या व्युत्पत्ति से भली भांति न निकलता हो । पदार्थविवेचकों या शास्त्रकारों की बनाई हुई संज्ञा । जैसे, गणित की परिभाषा, वैद्यक की परिभाषा, जुलाहों की परिभाषा ।

४. ऐसे शब्द का अर्थनिर्देश करनेवाला वाक्य या रुप ।

५. ऐसी बोलचाल जिसमें वक्ता अपना आशय परिभा- षिक शब्दों में प्रकट करे । ऐसी बोलचाल जिसमें शास्त्र या व्यवसाय की विशेष संज्ञाएँ काम में लाई गई हों । जैसे— यदि यही बात विज्ञान की परिभाषा में कही जाय तो इस प्रकार होगी ।

६. सूत्र के ६ लक्षणों में से एक ।

७. निंदा । परिवाद । शिकायत । बदनामी ।

क्रि॰ प्र॰—देना ।—लगाना ।

९. पिटारी जिसमें स्ञियाँ अपने आभूषणादि रखती हैं ।

१०. छापे के घिसे हुए और रद्दी टाइप । (मुद्रण) । मुहा॰—पाई करना = (१) घिसे और बेकार टाइपों को एक में मिला देना । (२) छापे में प्रयुक्त टाइपों को एक में इस तरह मिला देना के उनको अलग अलग न किया जा सके । पाई होना = मुद्रण में प्रयुक्त टाइपों का बेकार हो जाना ।

क्रि॰ प्र॰—देना ।

३. बहुत हलका मेल । अल्प मात्रा में मिश्रण । भावना । जैसे, माँग में संखिया का भी पुट है ।

क्रि॰ प्र॰—करना ।—होना ।

२. वह वाक्य जिससे कोई बात जानने की इच्छा प्रकट हो । सवाल । पूछने की बात ।

३. विचारणीय विषय ।

४. एक उफनिषद । विशेष—यह अथर्ववेदीय उपनिषद मानी जाती है । इसमें ६ प्रश्न हैं और प्रत्येक प्रश्न के सात से सोलह तक मंत्र हैं । सब मिलाकर ६७ मंत्र हैं । इसमें से प्रजापति से सृष्टि की उत्पत्ति का विषय अलंकारों द्वारा बताया गया है और अद्वैत मत निरुपित हुआ है । प्रथम प्रश्न कात्यायन जी करते हैं कि यह प्रजा कहाँ से उत्पन्न हुई । इसका उत्तर विस्तार से दिया गया है । दूसरा प्रश्न भार्गव वैदर्भी का है कि कौन देवता प्रजा का पालन करते हैं और कौन अपना बल दिखाते हैं । इसके उत्तर में प्राण नाम का देवता बडा बताया गया है क्योंकि उसके बल से सब इंद्रियाँ अपना अपना कार्य करती हैं । तीसरा प्रश्न अश्वलायन जी करते हैं कि प्राण किस प्रकार बडा है और किस प्रकार उसका संबंध बाह्य और अंतरात्मा से है । चौथा प्रश्न सौभाग्यी याग्या ने किया है कि पुरुषों में कौन सोता है, कौन जागता है, कौन स्वप्न देखता है, कौन सुख भोगता है । उत्तर में पुरुष की तीनों अवस्थाएँ दिखाकर आत्मा सिद्ध की गई है । पाँचवाँ प्रश्न शैव सत्यकामा ने ओंकार के अर्थ और उपासना के संबंध में किया है । छठा प्रश्न सुकेशा भरद्वाज का है कि सोलह कलाओंवाला पुरुष कौन है ।

५. भविष्य की जिज्ञासा ।

६. किसी ग्रंथादि का कोई छोटा अंश (को॰) ।

७. दे॰ 'वैदल' ।

क्रि॰ प्र॰—पड़ना ।

२. धान, मक्के, ज्वार आदि का लावा ।

क्रि॰ प्र॰—करना ।—लगना ।—लाना ।—होना ।

३. समय का कोई अंश जो गिनती में एक गिना जाय । दफा । मरतवा । जैसे,— मैं तुम्हारे यहाँ तीन बार आया । उ॰— (क) मरिए तों मरि जाइए छूटि परै जंजार । ऐसा मरना को मरै दिन में सौ सौ बार ।— कबीर (शब्द॰) । (ख) जहँ लगि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग । बार सहस्त्र सहस्त्र नृप किए सहित अनुराग ।—तुलसी (शब्द॰) । मुहा॰— बार बार=पुनः पुनः । फिर फिर । उ॰—(क) तुलसी मुदित मन पुरनारि जिती बार बार हेरै मुख अवध मृगराज को ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) फूल बिनन मिल कुज मे पहिरि गुंज को हार । मग निरखति नदलाल को सुबलि बार ही बार ।—पद्माकर (शब्द॰) ।

क्रि॰ प्र॰—पड़ना ।

५. किसी कार्य को करने में होनेवाला श्रम, कष्ट या व्यय । मिहनत, हैरानी, खर्च या तकलीफ जो किसी काम को करने में हो । कार्यभार । जैसे,—(क) तुम सब कामों का बोझ हमारे सिर पर डाल देते हो । (ख) गृहस्थी का सा्रा बोझ उसके सिर पर है । (ग) वे इस काम में बहुत रुपए दे चुके हैं, अब उनपर और बोझ न डालो । (घ) उनपर ऋण का बोझ न डालो । क्रि॰ प्र॰—उठाना ।—उतारना ।—डालना ।—पड़ना ।

६. वह व्यक्ति या वस्तु जिसके संबंध में कोई ऐसी बात करनी हो जो कठिन जान पड़े । जैसे,—यह लड़का तुम्हें बोझ हो, तो, मैं इसे अपने यहाँ ले जाकर रखूँगा ।

७. घास, लकड़ी आदि का उतना ढेर जितना एक आदमी लेकर चल सके । गट्ठर । जैसै,—बोझ भर से ज्यादा लकड़ी नहीं है ।

८. उतना ढेर जितना बैल, घोड़े, गाड़ी आदि पर लद सके । जैसे,—अब गाड़ी का पूरा बोझ हो गया, अब मत लादो । मुहा॰—बोझ उटना = किसी कठिन बात का हो सकना । किसी कठिन कार्य का भार लिया जा सकना । बोझ उठाना = किसी कठिन कार्य का भार ऊपर लेना । कोई ऐसी बात करने का नियम करना जिसमें बहुत मेहनत, खर्च हैरानी, या तकलीफ हो । जैसे, गृहस्थी का बोझ उठाना, खर्च का बोझ उठआना । बोझ उतरना = किसी काम से छुट्टी पाना । चिंता या खटके की बात दूर होना । जी हलका होना । जैसे,—आज उसका रुपया दे दिया, मानो बड़ा भारी बोझ उतर गया । बोझ उतारना = (१) किसी कठिन काम से छुटकारा देना । चिंता या खटके की बात दूर करना । (२) कोई ऐसा काम कर डालना जिससे चिंता या खटका मिट जाय । जैसे,—धीरे धीरे महाजन का रुपया देकर बोझ उतार दो (३) किसी काम को बिना मन लगाए यों ही किसी प्रकार समाप्त कर देना । बेगार टालना ।

क्रि॰ प्र॰—आना ।—पड़ना ।—में पड़ना । मुहा॰—मुश्किल आसान होना = संकट टलना ।

क्रि॰ प्र॰—खाना ।—देना ।—पाना ।—मिलना ।

क्रि॰ प्र॰—करना ।—डालना ।—तोड़ना ।—भरना ।

१३. वह उभड़ी हुई रेखा जो अंडकोश के नीचे के भाग से आरंभ होकर गुदा तक जाती है । सीयन । सीवन ।

१४. वह पका हुआ भोजन जो प्रायः नित्य किसी निश्चित समय पर दीनों और दरिद्रों आदि को बाँटा जाता है । क्रि॰ प्र॰—देना ।—बाँटना ।—लगाना । यौ॰—लंगरखाना ।

१५. वह स्थान जहाँ दोनों और दरिद्रों आदि को बाँटने के लिये बोजन पकाया जाता हो ।

१६. वह स्थान जहाँ बहुत से लोगों का भोजन एक साथ पकता हो ।

क्रि॰ प्र॰—करना ।—जोना ।

२. रोक । रुकावट । बाधा ।

३. कवच । बकतर ।

४. हाथी ।

६. हरताल ।

७. काला सीसम ।

८. पारिभद्र ।

९. सफेद कोरैया का फूल । १० छप्पय छंद का एक भेद जिसमें ४१ गुरु, ७० लघु कुल १११ वर्ण या १५२ मात्राएँ होती हैं; अथवा ४१ गुरु, ६६ लघु, कुल १०७ वर्ण या १४८ मात्राएँ होती है ।

११. द्बार । कपाट (को॰) ।

१२. प्रतिरक्षा । संरक्षा । प्ररक्षा (को॰) ।

१३. हाथी की सूँड़ ।

१४. मेहराब या तोरण की एक प्रकार की सजावट या नक्काशी [को॰] ।

क्रि॰ प्र॰—देना ।—पाना ।—मिलना ।

क्रि॰ प्र॰—देना ।—पाना ।—मिलना ।—लेना ।

२. गुरु के निकट विद्या का अभ्यास । विद्या का ग्रहण ।

३. दक्षता । निपुणता ।

४. उपदेश । मंत्र । सलाह ।

५. छह वेदांगों में से एक जिसमें वेदों के वर्ण, स्वर, मात्रा आदि का निरूपण रहता हैं, मंत्रों के ठीक उच्चारण का विषय । विशेष—यह विषय कुछ तो ब्राह्मण भाग में आया है और कुछ प्रतिशाख्य सूत्रों में । ऋग्वेद की शीक्षा का ग्रंथ शौनक का प्रतिशाख्य सूत्र है । यजुर्वेद के प्रतिशाख्य के दो ग्रंथ मिलते हैं—एक तो आत्रेय महर्षि और वररुचि संकलित त्रिभाष्यरत्न, जो तैत्तरीय शाखा का है और दूसरा कात्यायन जी का आठ आध्यायों का वाजसनेयी प्रातिशाख्य । पाणिनि आदि के व्याकरण से संबद्ध भी शिक्षा विषयक ग्रंथ हैं जिनकी संख्या पचासों से ऊपर है ।

६. शासन । दबाव ।

७. किसी अनुचित कार्य का बुरा परिणाम । सबक । दंड । जैसे,—अच्छी शिक्षा मिली, अब कभी ऐसा काम न करेंगे ।

८. विनय । विनम्रता । शिष्टता । सुजनता (को॰) ।

९. विज्ञान । कला । प्रायोगिक शिक्षा । जैसे, रणशिक्षा, सैनिक शिक्षा (को॰) ।

क्रि॰ प्र॰—करना । दिखाना ।

२. खुशामद । चापलूसी । व्यर्थ की प्रशंसा ।

क्रि॰ प्र॰—करना ।— मचना ।होना । उ॰—बस हाय हाय मच गई, रोने की अवाजें आने लगीं । —प्रेमघन॰, भा॰ २, पृ॰ २४ ।

क्रि॰ प्र॰—करना ।—होना । मुहा॰—हुकूमत चलना=प्रभुत्व माना जाना । अधिकार माना जाना । हुकूमत चलाना=प्रभुत्व या अधिकार से काम लेना । दूसरों को आज्ञा देना । जैसे,—उठो कुछ करो, बैठे बैठे हुकूमत चलाने से काम न होगा । हुकूमत जताना=अधिकार या बड़प्पन प्रकट करना । प्रभुत्व प्रदर्शित करना । रोब दिखाना ।

२. राज्य । शासन । राजनीतिक आधिपत्य । जैसे,—वहाँ भी अँगरेजों की हुकूमत है । यौ॰—हुकूमते जम्हूरी=जनता का शासन । जनतंत्र । लोकतंत्र ।

क्रि॰ प्र॰—उठना ।—मारना ।

२. दर्द । पीड़ा । कसक । उ॰—हिए हूक भरि नैन जल बिरह अनल अति हूम ।—माधवानल॰, पृ॰ २०४ ।

३. मानसिक वेदना । संताप । दुःख । उ॰—व्यापै बिया यह जानि परी मनमोहन मीत सोँ मान किये तेँ । भूलिहुँ चूक परै जो कहूँ तिहि चूक की हूक न जाति हिये तेँ ।—पद्माकर ग्रं॰, पृ॰ ११८ ।

४. धड़क । आशंका । खटका ।

क्रि॰ प्र॰—करना ।—मचना ।—होना ।