खगोल
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]खगोल संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. आकाशमंडल । विशेष—यद्यपि आकाश की कोई आकृति नहीं है, तथा पिपरिमित दृग्रशिम के कारण वह गोलाकर देख पड़ता है । जिस प्रकार विद्धानों ने पृथ्वी ती गोलाई में विषुवत्रेखा, अक्षांश ओर देशांतर रेखाओं तथा ध्रुव की कल्पना की है, ठीक उसी प्रकार खगोल में भी रेखाओं और ध्रुवौ की कल्पना की गई है । ज्योतिषियों ने ताराओं के प्रधान तीन भेद किए हैं—नक्षत्र, ग्रह और उपग्रह । नक्षत्र वह है जो सदा अपने स्थान पर अटल रहे । ग्रह तारा है जो अपने सौर जगत् के नक्षत्र की परिक्रमा करे । और उपग्रह वह है अपने ग्रह की परिक्रमा करता हुआ उसके साथ गमन करे । जिस तरह हमारे सौर जगत् का नक्षत्र हमारा सुर्य है, उसी तरह प्रत्येक अन्य सौर जगत् का नक्षत्र उसका सुर्य है । पृथिवी की दैनिक और वृत्ताकार गतियौं के कारण इन नक्षत्रों के उदय में विभेद पड़ता रहता है । यद्यपि गगनमंडल सदा पुर्व से पशिचम को घुमता हुआ दिखाई पड़ता बै, पर फिर भी वह धीरे धीरे पुर्व की और खसकता जाता है । इसलिये ग्रहों की स्थिति में भेद पड़ा करता है । प्राचीन आर्य ज्योतिषियों ने कुछ ऐस तारों का पता लगाया था जो अन्यों की अपेक्षा अत्यत दुर होने के कारण अपने स्थान पर अछल दिखाइ पड़ते थे । उन लोगों ने ऐसे कई तारों के योग से अनेक आकृतियों की कल्पना की थी । इनमें वे आकृतियाँ जो सुर्य के मार्ग के आस पास पड़ती थीं, अट्ठाईस थीं । इन्हें वे नक्षत्र कहते थे । इन तारों से जड़ा हुआ गगनमंडल अपने ध्रुवों पर घुमता हुआ माना गया है । समस्त खगोल को आधुनिक ज्योतिर्विदो ने बारह वीथियों में विभक्त किया है, जिनमें प्रत्येक वीथी के अंतर्गत अनेक मंडल हैं । प्रथम वीथी में पर्शु, त्रिकोण, मेष, नमि, यज्ञकुंड और यमी ये छह मंडल है । द्धितीय में चित्रक्रमेल, ब्रह्यम, वृष, घटिका, सुवर्णश्रम और आढ़क ये छह मंडल हैं । तृतीय में मिथुन, कालपुरुष, शश, कपोत, मृगप्याध, अर्णवयान, चित्रपटु अभ्र और चत्वाल नाम के ना मंडल है । चतुर्थ में वन मार्जार, कर्कट, शुनी एकश्रृंगि, कृकलास और पतत्रिमीन मंडल नाम के छह मडल है । पचम वीथी में सिंहशावक, सिंह, ह्यदसर्प, षष्ठीष और वायुयंत्र नाम के पाँच मंडल है । षष्ठ में सप्रर्षि, सारमेय, करिमुंड कन्या, करतल, कास्य, त्रिशंकु और मक्षिका आठ मंडल है । सप्तक में शिशुमार, भुतेश, तुला, शार्दुल, महिषासुर, वृत्त और धुम्राट नामक सात मंडल है । अष्टम में हरिकुल, किरीट, सर्प, वृश्चिक और दक्षिण त्रिकोण पांच मंडल है । नवम वीश्री में तक्षक, वीणा, सर्पधारि, धनुष, दक्षिण किरीट, दुरवीक्षण औऱ वेदि सात मडल हैं । दशन में वक, श्रृगाल वाण, गरुड़, श्रविष्ठा, मकर, अणुवीक्षण, सिंधु, मयुर और अष्टांश नाम के दस मंडस हैं । एकादश में शेफालि, गोधा, पक्षिराज, अशवतर, कृंभ, दक्षिण मीन, सारस और चंचुभुत आठ मंडल है । और द्धादश वीथी में काश्यपीय, ध्रुवमाना, मीन, भास्कर, संपाति, हरृद और ग्राव सात मंडल हैं । इनम सब को लेकर बारह वीथियाँ और ८४ मंडल हैं । इनमें से प्राचीन भारतीय विद्धानों को शिशुमार (विष्णुपुराण), त्रिशंकु, (वाल्मीकि), सप्तर्षि इत्यादि मंडलों का पता था । इन वीथीयों को क्रमश: मेष, वृष, मिथुन, आदि वीथियाँ भी कहते हैं । सुर्य के मार्ग में अट्ठाईस नक्षत्र पड़ते हैं, जिनके नाम अशिवनी आदि हैं । सूर्य मेष आदि बारह विथियों में क्रमश: होकर जाता हुआ दिखाई पड़ता है, जिसे राशि या लग्न कहते हैं ।
२. खगोल विद्या ।