गंध
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]गंध संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ गन्ध]
१. बास । महक । विशेष—न्याय या वैशेषिक में गंध को पृथिवी का गुण और घ्राण या नासिका का विषय कहा है । यद्यपि साधारण भेद दो हैं—सुगंध और दुर्गंध, पर शास्त्रकारों ने इसके प्रधान दस भेद किए है । (क) इष्ट, जैसे कस्तूरी आदि की । (ख) अनिष्ट, जैसे मुर्दें आदि की । (ग) मधुर; जैसी मधु, फूल आदि की । (घ) अम्ल, जैसी आम, आँवले की । (च) कटु, जैसी मिर्च आदि की । (छ) निहारी, जैसी हींग आदि में । (ज) संहत, जैसी चित्रगंध की । (झ) स्निग्ध जैसी घी की । (ट) रूक्ष, जैसे सरसों राई आदि की । (ठ) विशद, जैसी चावल आदि की ।
२. सुगंध । सुवास । विशेष—इसे लोगों ने पाँच प्रकार की माना है । (क) चूर्णाकृत, (ख) घृष्ट, (ग) दाहाकर्षित (घ) संमर्दज और (ङ) प्राण्योंगेदभव ।
३. सुगंधित द्रव्य जो शरीर में लगाया जाय । जैसे,—चंदन आदि का लेप ।
४. लेश । अणुमात्र । संस्कार । संबंध । जैसे, — उसमें भलमंसाहत की गंध भी नहीं है । उ॰—जेहि धंध जाकर मन बसे सपने सूझ सो गंध । तेहि कारन तपसी तप साधहि करहि प्रेम चित वंध । जायसी (शब्द॰) ।
५. गंधक ।
६. शोभांजन । सहिजन ।