गर्जन

विक्षनरी से

यह मुख्य रूप से असम पश्चिम बंगाल तथा अंडमान निकोबार के सदाबहार वनों में पाया जाता है इसकी लकड़ियां हल्के लाल तथा भूरे रंग की होती है जिसका उपयोग पेंटिंग,चाय के डिब्बे, फर्स, तथा माल डिब्बा बनाने में किया जाता है

हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

गर्जन ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. भीषण ध्वनि । गरजना । गरज । गभीर नाद । यौ॰—गर्जन तर्जन = (१) तड़प । (२) डाँट डपट ।

२. शोर । आवाज । कोलाहल [को॰] ।

३. क्रोध । आवेश [को॰] ।

४. संग्राम । रण । युद्ध (को॰) ।

५. तिरस्कार । झिड़की । भर्त्सना [को॰] ।

गर्जन ^२ संज्ञा पुं॰ [देश॰] शाल की जाति का एक पेड़ । विशेष—इसके जंगल के जंगल हिंदुस्तान में ट्रावंकोर, मलाबार, कनारा, कोंकन, चटगाँव, बरमा, अंडमान आदि में पाए जाते हैं । इसके पेड़ पीले रंग के, सीधे और सौ सवा सौ हाथ ऊँचे होते हैं और इलकी डालियाँ बहुत दूर तक नहीं फैलतीं । इनके कई भैद हैं, जिनमें से कुछ सदाबहार भी होते हैं । इस पेड़ से एक प्रकार का निर्यास निकलता है जो कभी कभी इतना पतला होता है कि वह अलसी के तेल की तरह रँगाई के काम में लाया जाता है । बरमा में दो प्रकार के गर्जन होते हैं । एक तेलिया गर्जन जिसका निर्यास लाल रंग का होता है, और दूसरा सफेद गर्जन जिसका निर्यास सफेद रंग का होता है । इन दोनों के निर्यास पतले और अच्छे होते हैं । तेल निकालने की विधि यह है कि नवंबर से मई तक इसके पेड़ की जड़ में दो तीन गहरे चौकोर गड्ढे खोद दिए जाते हैं । फिर उनके किनारे किनारे आग जलाई जाती है, जिससे तेल सिमट सिमटकर गड्ढे में इकट्ठा होता जाता है और तिसरे चौथे दिन गड्ढा भर जाता है । जो तेल मिटटी पर बहकर जम जाता है, उसे खुरचकर पत्तियों में लपेट लेते और जंगलों में मोम*- बत्ती की तरह जलाते हैं । आसाम और बरमा का होलंग नामक सदाबहार वृक्ष भी इसी जाति का है, जिसका निर्यास बिरोजे की तरह का और सफेद होता है । इस जाति के कुछ वृक्षों का निर्यास अधिक गाढ़ा होता है और राल की तरह जलाने के काम में आता है । यह वृक्ष बीजों से उगता है और इसके फल तथा बीज शाल के फलों और बीचों की तरह होते हैं । इसकी लकड़ी बहुत मजबूत और प्रति घन फुट २५*-३० सेर भारी होती है और नाव तथा घर बनाने के काम में आती है ।