गाँजा

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

गाँजा संज्ञा पुं॰ [सं॰ गञ्जा] भाँग की जाति का एक पौधा । विशेष—यह देखने में भाँग से भिन्न नहीं होता, पर भाँग की तरह इसमें फूल नहीं लगते । नैपाल की तराई, बंगाल आदि में यह भाँग के साथ आपसे आप उगता है; पर कहीं कहीं इसकी खेती भी होती है । इसमें बाहर फूल नहीं लगते, पर बीज पड़ते हैं । वनस्पति, शास्त्रविदों का मत है कि भाँग के पौधे के तीन भेद होते है—स्त्री, पुरुष और उभयलिंगी । इसकी खेती करनेवालों का यह भी अनुभव है कि यदि गाँजे के पौधे के पास या खेत में भाँग के पौधे हो, तो गाँजा अच्छा नहीं होता । इसलिये गाँजे के खेत से किसान प्रायः भाँग के पौधे उखाड़कर फेंक देते हैं । गाँजे के पौधे से एक प्रकार का लासा भी निकलता है । यद्यपि नीचे के देशों में यह यह लासा उतना नहीं निकलता तथापि हिमालय पर यह बहुतायत से निकलता है और इसी से चरस बनती है । हिंदुस्तान में गाँजा खाया नहीं जाता; लोग इसमें तमाकू मिलाकर इसे चिलम पर पीते हैं; पर अँगरेजी दवाओं में इसका सत्त काम में लाया जाता हैं । गाँजे की कई जातियाँ है—बालूचर, पहाड़ी, चपटा, गोली, भँगेरा इत्यादि । बालूचर के तैयार होने पर उसे काटकर और पूला बनाकर पैरों से रौंदते हैं । इस प्रकार तले ऊपर रखकर वैद्यक में गाँजे को कडुवा, कसैला, तीता और उष्ण लिखा है और उसे कफनाशकत, ग्राही, पाचक और अग्निवर्धक माना है । यह नशीला और पित्तोत्पादक होता है । इसके रेशे मजबूत होते हैं और सन की तरह सुतली बनाने के काम में आते हैं । नैपाल आदि पहाड़ी देशों में इन रेशों से एक प्रकार का मोटा कपड़ा भी बुनते हैं जिसे भँगरा कहते हैं । पर्या॰—गंजा । गंजिका । बज्रदारु । भंगा । भारिता । गजाशन । मत्कुणारि । मातुली । गंजाकिनी । मादिनी । शुक्राशन । जया । विजया । तुरंत—आनंदा । हर्षिणी ।