चतुरंग

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

चतुरंग ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ चतुरङ्ग]

१. वह गाना जिसमें चार प्रकार (जैसे, साधारण गाना, सरगम, तराना, और तबले, मृदंग, सितार आदि) के बोल गठे हों । उ॰—ग सा रे रे म म प प नि नि स स नि स रे स नि ध प प ध म म नि ध प ध प म ग रे । तनन तनन तुम दिर दिर तूम दिर तारे दानी । सोरठ चतुरंग सप्त सुरन से । धा तिरकिट धुम किट धा तिर किट धुम किट धा तिर किट धुम किट धा ।

२. एक प्रकार का रंगीन या चलता गाना ।

३. चतुरंगिणी सेना का प्रधान अधिकारी ।

४. सेना के चार अंग हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल ।

४. चतुरंगिणी सेना ।

चतुरंग † ^२ वि॰

१. चार अंगोंवाली । चतुरंगिणी (सेना) । उ॰— प्रात चली चतुरंग चमू बरनी सों न केशव कैसहु जाई ।— केशव (शब्द॰) ।

२. चार अंगोंवाला ।

चतुरंग पु संज्ञा पुं॰ [सं॰ चतुर + अड़ग] दूत । चर । उ॰— बर अथवंत सु दीह आइ चतुरंग सपन्नौ । मझ्झ महल नृप बोल वंचि कग्गद कर लिन्नौ ।—पृ॰ रा॰, २६ । १४ ।

चतुरंग ^३ संज्ञा पुं॰ [सं॰ चतुरङ्ग] शतरंज का खेल । विशेष—इस खेल के उत्पत्तिस्थान के विषय में लोगों के भिन्न भिन्न मत हैं । कोई इसे चीन देश से निकला हुआ बतलाते हैं, कोई मिस्त्र से और कोई यूनान से । पर अधिकांश लोगों का मत है, और ठीक भी है, कि यह खेल भारतवर्ष से निकला है । यहाँ से यह खेल फारस में गया; फारस से अरब में और अरब से यूरोपीय देशों में पहुँचा । फारसी में इसे चतरंग भी कहते हैं । पर अरबवाले इसे शातरंज, शतरंज आदि कहने लगे । फारस में ऐसा प्रवाद है कि यह खेल नौशेरवाँ के समय में हिंदुस्तान से फारस में गया और इसका निकालनेवाला दहिर का बेटा कोई सस्सा नामक था । ये दोनों नाम किसी भारतीय नाम के अपभ्रंश हैं । इसके निकाले जाने का कारण फारसी पुस्तकों में यह लिखा है कि भारत का कोई युद्धप्रिय राजा, जो नौशोरवाँ का समकालीन था, किसी रोग से अशक्त हो गया । उसी का जी बहलाने के लिये सस्सा नामक एक व्यक्ति ने चतुरंग का खेल निकाला । यह प्रवाद इस भारतीय प्रवाद से मिलता जुलता है कि यह खेल मंदोदरी ने अपने पति को बहुत युद्धसक्त देखकर निकाला था । इसमें तो कोई संदेह नहीं कि भारतवर्ष में इस खेल का प्रचार नौशेरवाँ से बहुच पहले था । चतुरंग पर संस्कृत में अनेक ग्रंथ हैं, जिनमें से चतुरंगकेरली, चतुरंग- क्रीड़न, चतुरंगप्रकाश और चतुरंगविनोद नामक चार ग्रंथ मिलते हैं । प्रायः सात सौ वर्ष हुए त्रिभंगचार्य नामक एक दक्षिणी विद्वान् इस बिद्या में बहुत निपुण थे । उनके अनेक उपदेश इस क्रीड़ा के संबंध में हैं । इस खेल में चार रंगों का व्यवहार होता था—हाथी, घोड़ा, नौका, और बट्टे (पैदल) । छठी शताब्दी में जब यह खेल फारस में पहुँचा और वहाँ से अरब गया, तब इसमें ऊँट और वजीर आदि बढ़ाए गए और खेलने की क्रिया मे भी फेरफार हुआ तिथितत्व नामक ग्रंथ में वेदव्यास जी ने युधिष्ठिर को इस खेल का जो विवरण बताया है, वह इस प्रकार है,—चार आदमी यह खेल खेलते थे । इसका चित्रपट (बिसात) ६४ घरों का होता था जिसके चारो ओर खेलनेवाले बैठते थे । पूर्व और पश्चिम बैठनेवाले एक दल में और उत्तर दक्षिण बैठनेवाले दूसरे दल में होते थे । प्रत्यक खिलाड़ी के पास एक राजा, एक हाथी, एक घोड़ा, एक नाव और चार बट्टे या पैदल होते थे । पूर्व की ओर की गोटीयाँ लाल, पश्चिम की पीली, दक्षिण की हरी और उत्तर की काली होती थीं । चलने की रीति प्रायः आज ही कल के ऐसी थी । राजा चारों ओर एक घर चल सकता था । बट्टे या पैदल यों तो केवल एक घर सीधे जा सकते थे, पर दूसरी गोटी मारने के समय एक घर आगे तिरछे भी जा सकते थे । हाथी चारों ओर (तिरछे नहीं) चल सकत था । घोड़ा तीन घर तिरछे जाता था । नौका दो घर तिरछे जा सकती थी । मोहरे आदि बनाने का क्रम प्राय; वैसा ही था, जैसा आजकल है । हार जीत भी कई प्रकार की होती थी । जैसे,—सिंहसन, चतुराजी, नृपाकृष्ट, षट्पद काककाष्ट, बृहन्नौका इत्यादि ।