चाड़

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

चाड़ ^१ पु संज्ञा स्त्री॰ [हिं॰ चाँड़ सं॰ चण्ड (= प्रबल)] गहरी चाह । चाव । प्रेम । वि॰ दे॰ 'चाँड़' । उ॰—(क)हित पुनीत सब स्वारथहि अरि अशुद्ध बिन चाड़ । निज मुख मारिकसम दसन भूमि परे ते हाड़ ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) कुच गिरि चड़ि अति ह्वै चली दीठि मुख गाड़ । फिरि न ढरी परियै रही परी चिबुक के गाड़ ।—बिहारी (शब्द॰) । (ग) काहे को काहु को दीजै उराहनो ईवै इहाँ हम आपनी चाड़ैं ।—(शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—लगना ।

चाड़ ^२ पु वि॰ [सं॰ चाटु, प्रा॰ चाडु] चुगलखोर । उ॰—साह दुकानाँ चोरटा, साहब कांनां चाड़ । लागे वित मत हर लिए, बे शोभा का फाड़ ।—बाँकी॰ ग्रं॰, भा॰ २, पृ॰ ५० ।