चार्वाक

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

चार्वाक संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. एक अनीश्वरवादी और नास्तिक तार्किक । पर्या॰— बार्हस्पत्य । नास्तिक । लौकायतिक । विशेष— ये नास्तिक मत के प्रवर्तक बृहस्पति के शिष्य माने जाते हैं । बृहस्पति और चार्वाक कब हुए इसका कुछ भी पता नहीं है । बृहस्पति को चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में अर्थशास्त्र का एक प्रधान आचार्य माना है । सर्वदर्शनसंग्रह में इनका मत दिया हुआ मिलता है । पद्यपुराण में लिखा है कि असुरों को बहकाने के लिये बृहस्पति ने वेदविरुद्ध मत प्रकट किया था । नास्तिक मत के संबध में विष्णुपुराण में लिखा है कि जब धर्मबल से दैत्य बहुत प्रबल हुए तब देवताओं ने विष्णु के यहाँ पुकार की । विष्णु ने अपने शरीर से मायामोह नामक एक पुरुष उत्पन्न किया जिसने नर्मदा तट पर दिगबंर रूप में जाकर तप करते हुए असुरों को बहकाकर धर्ममार्ग मे भ्रष्ट किया । मायामोह ने अपुरों को जो उपदेश किया वह सर्वदर्शनसंग्रह में दिए हुए चार्वाक मत के श्लोकों से बिलकुल मिलता है । जैसे, - मायामोह ने कहा है कि यदि यज्ञ में मारा हुआ पशु स्वर्ग जाता है दो यजमान अपने पिता को क्यों नहीं मार डालता इत्यादि । लिंगपुराण में त्रिपुरविनाश के प्रसंग में भी शिवप्रेरित एक ठिगंबर मुनि द्वारा असुरों के इसी प्रकार बहकाए जाने की कथा लिखी है जिसका लक्ष्य जैनों पर जान पड़ता है । वाल्मीकिरामायण अयोध्या कांडमें महर्षि जावालि ने रामचंद्र को बनबाम छोड़ अयोध्या लौट जाने के लिये जो उपदेश दिया है वह भी चार्वाक के मत से बिलकुल मिलता है । इन सब बातों से सिद्ध होता है कि नास्तिक मत बहु त प्राचीन है । इसका अविर्भाव उसी समय मे समझना चाहिए जव वैदिंक कर्मकांड़ों की अधिकता लोगों को कुछ खटकने लगी थी चार्वाक ईश्वर और परलोक नहीं मानते । परलोक न मानने के कारण ही इनके दर्शन को लोकायत भी कहते हैं । सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक के मत से सुख ही इस जीवन का प्रधान लक्ष्य है । संसार में दुःख भी है, यह समझकर जो सुख नहीं भोगना चाहते, वे मूर्ख हैं । मछली में काँटे होते हैं तो क्या इससे कोई मछली ही न खाय ? चौपाए खेत पर जायँगे, इस डर से क्या कोई खेत ही न बोवे ? इत्यादि । चार्वाक आत्मा को पृथक् कोई पदार्थ नहीं मानते । उनके मत से जिस प्रकार गुड़ तंडुल आदि के संयोग से मद्य में मादकता उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार भूतों के संयोगविशेष से चेतनता उत्पन्न हो जाती है । इनके विश्लेषण या विनाश से 'मैं' अर्थात् चेतनता का भी नाश हो जाता है । इस चेतन शरीर के नाम के पीछे फिर पुनरागमन आदि नहीं होता । ईश्वर, परलोक आदि विषय अनुमान के आधार पर हैं । पर चार्वाक प्रत्यक्ष को छोड़कर अनुमान को प्रमाण में नहीं लेते । उनका तर्क है कि अनुमान व्याप्तिज्ञान का आश्रित है । जो ज्ञान हमें बाहर इंद्रियों के द्वारा होता है उसे भूत और भविष्य तक बढ़ाकर ले जाने का नाम व्याप्तिज्ञान है, जो असंभव है । मन में यह ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, यह कोई प्रमाण नहीं क्योंकि मन अपने अनुभव के लिये इंद्रियों का ही आश्रित है । यदि कहो कि अनुमान के द्वारा व्याप्तिज्ञान होता है तो इतरेतराश्रय दोष आता है, क्योंकि व्याप्तिज्ञान को लेकर ही तो अनुमान को सिद्ध किया चाहते हो । चार्वाक का मत सर्वदर्शनसंग्रह, सर्वदर्शनशिरोमणि और बृहस्पतिसूत्र में देखना चाहिए । नैषध के १७वें सर्ग में भी इस मत का विस्तृत उल्लेख है । यौ॰— चार्वाक दर्शन = चार्वाक निर्मित दर्शन ग्रथ । चार्वाक मत = चार्वाक का सिद्धांत या दर्शन ।

२. एक राक्षस जो कौरवों के मारे जाने पर ब्राह्मण वेश में युधिष्ठिर की राजसभा में जाकर उलको राज्य के लोभ से भाई बंधुओं को मारने के लिये धिक्कारने लगा । इसपर सभास्थित ब्राह्मण लोग हुंकार छोड़कर दौडे़ और उन्होंने छद्यवेशधारी राक्षस को मार डाला ।