चाव
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प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]चाव ^१ संज्ञा पुं॰ [हिं॰ चाह]
१. प्रबल इच्छा । अभिलाषा । लालसा । अरमान । उ॰—(क) चित्रकेतु पृथ्विपतिराव । सुतोहित भय ो तासु हिय चाव । —सूर (शब्द॰) । (ख) चहौ दीप वह देखा, सुनत उठा तस चाव ।—जायसी (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—उठना ।—करना ।— होना । मुहा॰—चाव निकालना = लालसा पूरी करना ।
२. प्रेंम । अनुराग । चाह । उ॰—ज्यों ज्यों चवाव चलै चहुँ ओर धरैं चित चाव पै त्यों ही त्यों चोखे—(शब्द॰) ।
३. शौक । उत्कंठा । उ॰—चोप घटी कि मिटी चित चाव, कि आलस नींद, कि बेपरवाही ।—(शब्द॰) । लाड़
४. प्यार । दुलार । नखरा । यौ॰—चावचोचला = नाजनखरा । चावभाव = प्रेमभाव । यौ॰—उमंग । उत्साह । आनंद । उ॰—यहि बिधि जासु प्रभाव, श्री दसरथ महिपाल मणि । और सबै चित चाव, सुत बिनु तपित रहत हिय ।—रघुराज (शब्द॰) ।
चाव ^२ † संज्ञा पुं॰ [सं॰ चप] एक प्रकार का बाँस । वि॰ दे॰ 'चाब' ।