चित
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]चित ^१ वि॰ [सं॰]
१. चुनकर इकट्ठा किया हुआ ।
२. ढका हुआ । आच्छादित ।
३. संचित । जमा किया हुआ (को॰) ।
चित ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ चित] चित्त । मन । उ॰—अब चिंत चेति चित्रकूटहि चलु ।—तुलसी ग्रं॰, पृ॰ ४६६ । विशेष— दे॰ 'चित्त' । मुहा॰— दे॰ 'चित्त' के मुहावरे ।
चित ^४ वि॰ [सं॰ चित (= ढेर किया हुआ)] इस प्रकार पड़ा हुआ मुँह, पेट आदि शरीर का अगला भाग उपर की ओर हो और पीठ, चूतड़ आदि पीछे का भाग नीचे की ओर किसी आधार से लगा हो । पीठ के बल पड़ा हुआ । 'पट' या 'औंधा' का उलटा । जैसे, चित कौड़ी । यौ॰—चित भी मेरी पट भी मेरी = (१) हर हालात में अपने आप को बढ़ा चढ़ाकर दिखाना । (२) पासे या कौड़ी खेलने में बेईमानी करना । क्रि॰ प्र॰—करना ।—होना । यौ॰—चितपट । मुहा॰—चित करना = कुश्ती में पछाड़ना । कुश्ती में पटकना । चारो खाने (या शाने) चित = (१) हाथ पैर फैलाए बिलकुल पीठ के बल पड़ा हुआ । (२) हक्का बक्का । स्तभित । ठक । जड़ीभूत । चित होना = बेसुध होकर पड़ जाना । बेहोश होना जैसे,—इतनी भाँग में तो तुम चित हो जाओगे ।
चित ^५ क्रि॰ वि॰ पीठ के बल । जैसे,—चित गिरना, चित पड़ना, चित लेटना ।