चिता
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]चिता संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ चिन्ता]
१. ध्यान । भावना ।
२. वह भावना । जो किसी प्राप्त दुःख या दुःख की आशंका आदि से हो । सोच । फिक्र । खटका । उ॰—चिंता ज्वाल शरीर वन, दावा लगि लगि जाय । प्रगट धुवाँ नहिं देखिए, उर अंतर धुँधुआय ।—गिरधर (शब्द॰) । क्रि॰ प्र॰—करना ।—होना । मुहा॰—चिंता लगना = चिंता का बराबर बना रहना । जैसे,— मुझे दिन रात इसी की चिंता लगी रहती है । कुछ चिंता नहीं = कुछ परवाह नहीं । कोई खटके की बात नहीं । विशेष—साहित्य में चिंता करुण रस का व्यभिचारी भाव माना जाता है, अतः वियोग की दस दशाओं में से चिंता दूसरी दशा मानी गई है ।
३. मनन । चिंतन । गंभीर विचार । यौ॰—चिंताधारा—विचार की दिशा ।
चिता संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]
१. चनकर रखी हुई लकड़ियों का ढेर जिसपर रखकर मुरदा जलाया जाता है । मृतक से शवदाह के लिये बिछाई हुई लकड़ियों का राशी । क्रि॰ प्र॰—बनाना ।—लगाना । पर्या॰—चित्या । चिति । चैत्य । काष्ठमठी । यौ॰—चितापिंड़ = वह पिंड़दान जो शवदाह के उपरांत होता है । चिताभस्म = चिता की राख । मुहा॰—चिता चुनना = शवदाह के लिये लकड़ियों को नीचे ऊपर क्रम से रखना । चिता साजना । चिता तैयार करना । चिता पर चढ़ना = मरना । चिता में बैठना = सति होने के लिये विधवा का मृत पति की चिता में बैठना । मृत पति के शरीर के साथ जलना । सती होना । चिता साजना = दे॰ 'चिता चुनना' ।
२. श्मशान । मरघट । उ॰—भीख माँगि भव खाहिं चिता नित सोवहिं । नाचहिं नगन पिशाच, पिसाचिन जोवहिं ।—तुलसी (शब्द॰) ।