चीता

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

चीता ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ चित्रक]

१. बिल्ली की जाति का एक प्रकार का बहुत बडा़ हिंसक पशु । विशेष—यह प्रायः दक्षिणी एशिया और विशेषतः भारत के जंगलो में पाया जाता है । यह आकार में बाघ से छोटा होता है और इसकी गरदन पर अयाल नहीं होती । इसकी कमर बहुत पतली होती है और इसके शरीर पर लंबी, काली और पीली धारियाँ होती हैं जो देखने में बहुत सुंदर होती हैं । यह बहुत तेजी से चौकडी़ भरता है और इसी प्रकार प्रायः हिरनों को पकड़ लेता है । यह साधारणतः बहुत हिंसक होता है और प्रायः पेट भरे रहने पर भी शिकार करता है । संध्या समय यह जलाशयों के किनारे छिपा रहता है और पानी पीनेवाले जानवरों को उठा ले जाता है । चीता मनुष्यों पर जल्दी आक्रमण नहीं करता; पर एकबार जब इसका मुँह में आदमी का खून लग जाता है, तो फिर वह प्रायः गावों में उसी के लिये घुस जाता है और मनु्ष्यों के बालकों को उठा ले जाता है । यह पेड़ पर नहीं चढ़ सकता, पर पानी में बहुत तेजी से तैर सकता है । इसकी मादा एक बार में ३-४ तक बच्चे देती है । भारत में इसका शिकार किया जाता है । कहीं कहीं बडे़ आदमी इसे दूसरे जानवरों का शिकार करने के लिये भी पालते हैं । इसका बच्चा पकड़कर पाला भी जा सकता है ।

२. एक प्रकार का बहुत बडा़ क्षुप जिसकी पत्तियाँ जामुन की पत्तियों से मिलती जुलती होती हैं । विशेष—इसकी कई जातियाँ है जिनमें अलग अलग सफेद, लाल, काले या पीले फूल लगते हैं । पर सफेद फूलवाले चीते के सिवा और रंग के फूलवाले चीते बहुत कम देखने में आते हैं । इसके फूल बहुत सुगंधित और जूही के फूलों से मिलते जुलते होते हैं और गुच्छों में लगते हैं । इसकी छाल और जड़ ओषधि के काम में आती है । यह बहुत पाचक होता है । वैद्यक में इसे चरपरा हलका, अग्निदीपक, भूख बढा़नेवाला, रूखा, गरम और संग्रहणी, कोढ़, सूजन, बवासीर, खाँसी और यकृत् दोष आदि को दूर करनेवाला तथा त्रिदोषनाशक माना है । कहते हैं, लाल फूलेवाले चीते की जड़ के सेवन से स्थूल हो जाता है और काले फूल के चीते की जड़ के सेवन से बाल काले हो जाते हैं । पर्या॰—चित्रक । अनल । वह्नि । विभाकर । शिखावान् । शुष्मा । पावक । दारण । शंबर । शिखी । हुतभुक् । पाची । इसके अतिरिक्त अग्नि के प्रायः सभी पर्याय इसके लिये व्यवहृत होते हैं ।

चीता ^२ † संज्ञा पुं॰ [सं॰ चित्त] चित्त । हृदय । दिल । उ॰—अति अनंद गति इंद्री जीता । जाको हरि बिन कबहुँ न चीता ।— तुलसी ग्रं॰ पृ॰ १० ।

चीता ^३ संज्ञा पुं॰ [सं॰चेत] संज्ञा । होश हवास । उ॰—तिन को कहा परेखो कीजे कुबजा के मीता को । चढ़ि चढ़ि सेज सातहुँ सिंधू बिसरी जो चीता को ।—सूर (शब्द॰) ।

चीता ^४ वि॰ [हिं॰ चेतना या चीतना] [वि॰ स्त्री॰ चीती] सोचा हुआ । विचारा हुआ । जैसे,—अब तो तुम्हारा चीता हुआ । यौ॰—मनचीता । मनचीती ।