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चैतन्य

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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चैतन्य ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. चितस्वरुप आत्मा । चेतन आत्मा ।

२. ज्ञान । विशेष— न्याय में ज्ञान और चैतन्य को एक ही माना है । और उसे आत्मा का धर्म बतलाया है । पर साँख्य के मत से ज्ञान से चैतन्य भीन्न है । यद्यपि इसमें रुप, रस, गंध आदि विशेष गुण नहीं हैं, तथापी संयोग, विभाग और परिमाण आदि गुणों के कारण सांख्य में इसे अलग द्रव्य माना है और ज्ञान को बुद्धि का धर्म बतलाया है ।

३. परमेश्वर ।

४. प्रकृति ।

५. एक प्रसिद्ध बंगाली वैष्णव धर्मप्रचारक जिनका पूरा नाम श्रीकृष्ण चैतन्यचंद्र था । विशेष— इनका जन्म नवद्वीप में १४०७ शकाब्द के फागुन की पूर्णिमा को रात में चंद्रग्रहण के समय हुआ था । इनकी माता का नाम शची और पीता का नाम जगन्नाथ मिश्र था । कहते हैं बाल्यवस्था में ही इन्होंने अनेक प्रकार की विलक्षण लिलाएँ दिखलानी आरंभ कर दी थीं । पहले इनका विवाह हुआ था, पर पीछे ये संन्यासी हो गए थे । ये सदा भगवदभजन में मग्न रहते थे । पहले इनके शिष्यों और तदुपरांत अनुयायियों की भी संख्या बहुत बढ गई थी । अब भी वंगाल में इनके चलाए हुए संप्रदाय के बहुत से लोग हैं जो इन्हें श्रीकृष्णचंद्र का पूर्ण अवतार मानते हैं । ४८ वर्ष की अवस्था में इनका शरीरांत हो गया था । इनके चैतन्य महाप्रभु और निमाई आदि और भी कई नाम हैं । यौ॰—चैतन्यचरितामृत = कृष्णादास कविराज लिखित चैतन्यदेव का जिवनचरित । चैतन्यवाहिनी नाडी = इंद्रियज ज्ञान को मस्तिष्क तक पहुँचानेवाली नाडी । चैतन् संप्रदाय = चैतन्य— देव द्वारा प्रवर्तित मत ।

चैतन्य वि॰

१. चोतनायुक्त ।सचोत ।

२. होशियार । सावधान ।