छत्र
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]छत्र संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. छाता । छतरी ।
२. राजाओं का छाता जो राजचिह्नों में से एक है । उ॰—तिय बदलैं तेरो कियो, भीर भंग सिर छत्र ।—हम्मीर, पृ॰ ३८ । विशेष—यह छाता बहुमूल्य स्वर्णड़ंड़ आदि से युक्त रत्नजटित तथा मोती की झालरों आदि से अलंकृत होता है । भोजराज कृत 'युक्तिकल्पतरु' नाक ग्रंथ में छत्रों के परिमाण, वर्ण आदि का विस्तृत विवरण है । जिस छत्र का कपड़ा सफेद हो और जिसके सिरे पर सोने का कलश हो, उसका नाम कलकदंड है । जिसका ड़ंड़ा, कमानो, कील आदि विशुद्ध सोने की हों, कपड़ा और ड़ोरी कृष्ण वर्ण हो, जिसमें बत्तीस बत्तीस मोतियों की बत्तीस लड़ों की झालरें लटकती हों और जिसमें अनेक रत्न जड़े हों, उम छत्र का नाम 'नवदंड़' है । इसी नवदंड़ छत्र के ऊपर यदि आठ अंगुल की एक पताका लगा दी जाय तो यह 'दिग्विजयी' छत्र हो जाता है । यौ॰—छत्रछाँह छत्रछाया = रक्षा । शरण । मुहा॰—किसी की छत्रछाँह में होना किसी की संरक्षा में रहना ।
३. खुमी । भूफोड़ । कुकुरमुत्ता ।
४. बच की तरह का एक पेड़ ।
५. छतरिया विष । खर विष । अतिच्छत्र ।
६. गुरु के दोष का गोपन । बजों के दोष छिपाना ।