जङ्गम

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

जंगम ^१ वि॰ [सं॰ जङ्गम]

१. चलने फिरनेवाला । चलता फिरता । चर । उ॰—पुष्पराशि समान उसकी देख पावन कांति । भूप को होने लगी जंगम लता की भ्रांति ।—शकुं॰, पृ॰ ७ ।

२. जो एक स्थल से दूसरे स्थल पर लाया जा सके । जैसे, जंगम संपति, जंगम दिष ।

३. गमनशील प्राणी से उत्पन्न या प्राणिजन्य ।

जंगम ^२ संज्ञा पुं॰ दाक्षिणात्य लिंगायत शैव संप्रदाय के गुरु । विशेष—ये दो प्रकार के होते हैं—विरक्त और गृहस्थ । विरक्त सिर पर जटा रखते हैं और कौपीन पहनते हैं । इन लोगों का लिंगायती में बड़ा मान है ।

३. गमनशील यति । जोगी । उ॰—कहैं जंगम तुं कौन नर क्यों आगम ह्याँ कीन ।—पृ॰ रा॰, ६ ।२२ ।

४. जाना । गमन । उ॰—तिन रिषि पूछिय ताहि, कवन कारन इत अंगम । कवन थान, किहि नाम, कवन दिसि करिब सु जगंम ।—पृ॰ रा॰, १ ।५६१ ।

जंगम विष संज्ञा पुं॰ [सं॰ जङ्गमविष] वह विष जो चर प्राणियों कि दंश, आघात या विकार आदि से उत्थन्न हो । षिशेष—सुश्रुत ने सोलह प्रकार के जंगम विष माने हैं—द्दष्टि, निःश्वास, दंष्ट्रा, नख, मूत्र, पुरीष, शुक्र, लाला, आर्तव, आल (आड़), मुखसंदेश, अस्थि, पित्त, विशद्धित, शूक और शव या मृत देह । उदाहरण के लिये जैसे, दिव्य सपँ के श्वास में विष; साधारण सर्प के दंशन में विष; कुत्ते, बिल्ली, बंदर, गोह आदि के नख और दाँत में विष; बिच्छू, भिड़, सकुची मछली आदि के आड़ में विष होता हैं ।