जानु

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

जानु ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰] जाँघ और पिंडली के मध्य का बाग । घुटना । उ॰—(क) श्याम की सुंदरताई । बडे विशाल जानु लौं पहुँचत यह उपमा मन भाई ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) जानु टेकि कपि भूमि न गिरा । उठा सँभारि बहुत रिस भरा ।—तुलसी (शब्द॰) ।

जानु ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ जानु, तुल॰फा॰जानू] जाँघ । रान । उ॰— बात है फाबत आक के मान है कदली विपरीत उठानु है ।... का न करै यह सौतिन के पर प्रान से प्यारी सुजान की जानु है ।—तोष (शब्द॰) ।

जानु ^३ पु अव्य॰ [हिं॰ जानना] दे॰ 'जानो' । उ॰—तरिवर फरे फरै फरहरी । फरे जानु इंद्रासन पुरी ।—जायसी (शब्द॰) ।

जानु संज्ञा पुं॰ [फा॰ जानु] जंघा । जाँघ ।