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जैगीषव्य

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

जैगीषव्य संज्ञा पुं॰ [सं॰] योगशास्त्र के वेत्ता एक मुनि का नाम । विशेष— महाभारत में इनकी कथा विस्तार से लिखी है । असित देवल नामक एक ऋषि आदित्य तीर्थं में निवास करते थे । एक दिन उनके यहाँ जैगीषव्य नामक एक ऋषि आए और उन्हीं के यहाँ से निवास करने लगे । थोडे़ ही दिनों में जैगिषव्य योग साधन द्वारा परम सिद्ध हो गए और असित देवल सिद्धिलाभ न कर सके । एक दिन जैगीषव्य कहीं से घूमते फिरते भिक्षुक कै रूप में देवल के पास आकर बैठे । देवल यथाविधि उनकी पूजा करने लगे । जब बहुत दिन तक पूजा करते हो गए और जैगीषव्य अटल भाव से बैठे रहे, कुछ बोले वाले नहीं तब देवल ऊंबकर आकाश पथ से स्नान करने चले गए । समुद्र के किनारे उन्होंने जाकर देखा तो जैगीषव्य को स्नान करते पाया । आश्चर्य से चकित होकर जल्दी से आश्रम को लौट आए । वहाँ पर उन्होंने जैगीषव्य को उसी प्रकार अटल भाव से बैठे पाया । इसपर देवल आकाश मार्ग में जाकर उनकी गति का निरिक्षण करने लगे । उन्होंने देखा कि आकाशचारी अनेक सिद्ध जैगीषव्य की सेवा कर रहें हैं, फिर देखा कि वे नान मार्गों में स्वेच्छा- पूर्वक भ्रमण कर रहे हैं । ब्रम्हलोक, गोलोक, पतिब्रत लोक इत्यादि तक तो देवल पीछे गए पर इसके आगे वे न देख सके की जैगीषव्य कहाँ गए । सिद्धों से पूछने पर मालूम हुआ की वे सारस्वत ब्रम्हलोक में गए हैं जहाँ कोई नहीं जा सकता । इस पर देवल घर लौट आए । वहाँ जैगिषव्य को ज्यों का त्यों बैठे देख उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । इसके बाद वे जैगीषव्य के शिष्य हुए और उनसे योगशास्त्र की शिक्षा ग्रहण करके सिद्ध हुए ।