ठटना
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]ठटना ^१ क्रि॰ स॰ [सं॰ स्थाता ( = जो खड़ा या ठहरा हो) । हिं॰ ठाट, ठाढ़]
१. ठहराना । निश्चित करना । स्थिर करना । उ॰—होत सु जो रघुनाथ ठटी । पचि पचि रहे सिद्ध, साधक, मुनि तऊ बढ़ी न घटी ।—सूर (शब्द॰) ।
२. सजाना । सुसज्जित करना । तैयार करना । उ॰—(क) नृप बन्यो विकट रन ठाट ठटि मारु मारु धरु मारु रटि ।— गोपाल (शब्द॰) । (ख) कोऊ करि जलपान मुरोठा ठटि ठटि बान्हत ।—प्रेमघन॰, भा॰ १, पृ॰ २४० । मुहा॰—ठटकर बातें करना = बना बनाकर बातें करना । एक एक शब्द पर जोर देते हुए बातें करना ।
३. (राग) छेड़ना । आरंभ करना । उ॰—नव निकुंज गृह नवल आगे नवल बीना मधि राग गौरी ठटी ।—हरिदास (शब्द॰) ।
ठटना ^२ क्रि॰ अ॰
१. खड़ा रहना । अड़ना । डठना । उ॰—खैंचत स्वाद स्वान पातर ज्यों चातक रटत ठटी ।—सूर (शब्द॰) ।
२. विरोध में जमना । विरोध में डटा रहना ।
३. सजना । सुसज्जित होना । तैयार होना । उ॰—जबहीं आइ चढ़ै दल ठटा । देखत जैस गगन घन घटा ।—जायसी (शब्द॰) ।
४. एकत्र होना । जमाव होना । पुंजीभूत होना । उ॰— छत्तीस राग रागनि रसनि तंत ताल कंठन ठटहिं ।—पृ॰ रा॰, ८ ।२ ।
५. स्थित होना । धरना । करना । साधना । उ॰—कोई नाँव रटै कोई ध्यान ठटै कोई खोजत ही थक जावता है ।—सुंदर॰ ग्रं॰, भा॰ १, पृ॰ २९८ ।