ढाक
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प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]ढाक ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ आषाढक (= पलाश)]
१. पलाश का पेड़ । छिउला । छीउल । उ॰— आनंदघन ब्रजजीवन जेंवत हिलमिलि ग्वार तोरि पतानि ढाक ।—घनानंद, पृ॰, ४७३ । मुहा॰—ढाक के तीन पात = सदा एक सा निर्धन । कभी भरा पूरा नहीं ।—(निर्धन मनुष्य के संबंध में बोलते हैं)। ढाक तले की फूहड़, महुए तले की सूघड़ = जिसके पास धन नहीं रहता वह निर्गुणी, और धनवाला सर्वगुणसंपन्न समझ जाता है ।
२. कुश्ती का एक पेच । दे॰ 'ढाँक' । उ॰— उस्ताद सम्हले रहते हैं । मगर जोर वे मनोहर के जैसे दो तीन को करा सकते हैं । दस्ती, उतार, लोकान, पट, ढाक, कलाजंग, धिस्से आदि दाँव चले और कटे ।—काले॰, पृ॰ ४ ।
ढाक ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ ढक्का] लड़ाई का बड़ा ढोल । उ॰— गोमुख, ढाक, ढोल पणवानक । बाजत रव अति होत भयानक ।— सबल (शब्द॰) ।