तंत्र

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

तंत्र संज्ञा पुं॰ [सं॰ तन्त्र]

१. तंतु । ताँत ।

२. सूत ।

३. जुलाहा ।

४. कपड़ा बुनने की सामग्री ।

५. कपड़ । वस्त्र ।

६. कुटुंब के भरण और पोषण आदि का कार्य ।

७. निश्चित सिद्धांत ।

८. प्रमाण ।

९. औषध । दवा ।

१०. झाड़ने फूँकने का मंत्र ।

११. कार्य ।

१२. कारण ।

१३. उपाय ।

१४. राज- कर्मचारी ।

१५. राज्य ।

१६. राज का प्रबंध ।

१७. सेना । फौज ।

१८. अधिकार ।

१९. कार्य का स्थान । पद ।

२०. समूह ।

२१. प्रसन्नता । आनंद ।

२२. घर । मकान ।

२३. धन । संपत्ति ।

२४. अधीनता । परवश्यता ।

२५. श्रेणी । वर्ग । कोटि ।

२६. दल ।

२७. उद्देश्य ।

१८. कुल । खानदान ।

२९. शपथ । कसम ।

३०. हिदुओं का उपासना संबंधी एक शास्त्र । विशेष— लोगों का विश्वास है कि यह शास्त्र शिवप्रणीत है । यह शास्त्र तीन भागों में विभक्त है— आगम, यामल और मुख्य तंत्र । वाराही तंत्र के अनुसार जिसमें सृष्टि, प्रलय, देवताओं की पूजा, सब कार्यों के साधना, पुरश्चरण, षट्कर्म- साधन और चार प्रकार के ध्यानयोग का वर्णन हो, उसे आगम और जिसमें सृष्टितत्व, ज्योतिष, नित्य कृत्य, क्रम, सूत्र, वर्णभेद और युगधर्म का वर्णन हो उसे यामल कहते हैं; और जिसमें सृष्टि, लट, मंत्रनिर्णय, देवताओं, के संस्थान, यंत्रनिर्णय, तीर्थ, आश्रम, धर्म, कल्प, ज्योतिष संस्थान, व्रत- कथा, शौच और अशौच, स्त्री—पुरूष—लक्षण, राजधर्म, दान— धर्म, युवाधर्म, व्यवहार तथा आध्यात्मिक विषयों का वर्णन हो, वह तंत्र कहलाता है । इस शास्त्र का सिद्धांत है कि कलि- युग में वैदिक मंत्रों, जपों और यज्ञों आदि का कोई फल नहीं होता । इस युग में सब प्रकार के कार्यों की सिद्धि के लिये तंत्राशास्त्र में वर्णित मंत्रों और उपायों आदि से ही सहायता मिलती है । इस शास्त्र के सिद्धांत बहुत गुप्त रखे जाते हैं और इसकी शिक्षा लेने के लिये मनुष्य को पहले दीक्षित होना पड़ना है । आजकल प्रायः मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि के लिये तथा अनेक प्रकार की सिद्धियों आदि के साधन के लिये ही तंत्रोक्त मंत्रों और क्रियाओं का प्रयोग किया जाता है । यह शास्त्र प्रधानतः शाक्तों का ही है और इसके मंत्र प्रायः अर्थहीन और एकाक्षरी हुआ करते हैं । जैसे,— ह्नीं, क्लीं, श्रीं, स्थीं, शूं, क्रू आदि । तांत्रिकों का पंचमकार— मद्य, मांस, मत्स्य, मुदेरा और मैखुन— और चक्रपूजा प्रसिद्ध है । तांत्रिक सब देवताओं का पूजन करते है पर उनकी पूजा का विधान सबसे भिन्न और स्वतंत्र होता है । चक्रपूजा तथा अन्य अनेक पूजाओं में तांत्रिक लोग मद्य, मांस और मत्स्य का बहुत अधिकता से व्यवहार करते हैं और धोबिन, तेलिन आदि स्त्रियों को नंगी करके उनका पूजन करते है । यद्यपि अथर्ववेद संहिता में मारण, मोहन, उच्चाटन और वशीकरण आदि का वर्णन और विधाना है तथापि आधुनिक तंत्र का उसके साथ कोई संबंध नहीं हैं । कुछ लोगें का विश्वास है कि कनिष्क के समय में और उसके उपरांत भारत में आधुनिक तंत्र का प्रचार हुआ है । चीनी यात्री फाहियान और हुएनसांग ने अपने लेखों में इस शास्त्र का कोइ उल्लेख नहीं किया है । यद्यपि निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि तंत्र का प्रचार कब से हुआ पर तो भी इसमें संदेह नहीं कि यह ईसवी चौथी या पांचवीं शताब्दी से अधिक पुराना नहीं है । हिंदुओं की देखादेखी बौद्धों में भी तंत्र का प्रचार हुआ और तत्संबंधी अनेक ग्रंथ बने । हिंदू तांत्रिक उन्हों उपतंत्र कहते हैं । उनका प्रचार तिब्बत तथा चीन में है । वाराही तंत्र में यह भी लिखा है कि जैमिनि, कपिल, नारद, गर्ग, पुलस्त्य, भृगु, शुक्र, बृहस्पति आदि ऋषियों ने भी कई उपतंत्रों की रचना की है ।