तन्मात्र

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर

शब्दसागर[सम्पादन]

तन्मात्र एक संज्ञा पुं॰ [सं॰]

सांख्य के अनुसार पंचभूतों का अविशेष मूल तन्मात्र है यानी पंचभूतों का आदि, अमिश्र और सूक्ष्म रूप ।

संख्या में ये तन्मात्र पाँच हैं — शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध।

विशेष—सांख्य में सृष्टि की उत्पत्ति का जो क्रम दिया है, उसके अनुसार पहले प्रकृति से महत्तत्व की उत्पत्ति होती है।

महत्तत्व से अहंकार और अहंकार से सोलह पदार्थों की उत्पत्ति होती है ।

ये सोलह पदार्थ हैं....

पाँच ज्ञानेंद्रियाँ - - १. आँखें, २. कान, ३. नाक, ४. जिह्वा और ५. त्वचा।

पाँच कर्मेंद्रियाँ - - १. गुदा, २. जननेंद्री लिंग/योनी, ३. मूत्र छिद्र, ४. हाथ. ५. पाँव।

एक मनस - - जिसके चार भाग/अंग हैं। १. चित, २.आत्मा, ३. वुद्धि, ४. मन।

और

पाँच तन्मात्रांएं हैं - - १. 'शब्द', २. 'स्पर्श', ३. 'रूप', ४.'रस' और ५. 'गंध'।


इन पाँच तन्मात्राओं के संयोग से पाँच महाभूत उत्पन्न होते हैं। अर्थात् ..

'शब्द' तन्मात्र से आकाश उत्पन्न होता है और आकाश का 'गुण' 'शब्द' है।

'शब्द' और 'स्पर्श', इन दो तन्मात्राओं के संयोग से 'वायु' उत्पन्न होती है, और 'शब्द' तथा 'स्पर्श' दोनों ही उसके गुण हैं।

'शब्द', 'स्पर्श' और 'रूप' इन तीन तन्मात्राओं के संयोग से 'ताप' (अग्नि, तेज) उत्पन्न होती है, और, इसीलिए 'शब्द', 'स्पर्श' और 'रूप' ये तीनों 'अग्नि' के गुण हैं।

'शब्द', 'स्पर्श', 'रूप' और 'रस' इन चार तन्मात्राओं के संयोग से 'जल' उत्पन्न होता है। और जिसमें ये चारों गुण होते हैं।

'शब्द', 'स्पर्श', 'रूप', 'रस' और 'गंध' इन पाँचों तन्मात्रों के संयोग से 'पृथ्वी' की उत्पत्ति होती है और जिसमें ये पाँचों गुण रहते हैं ।