तप

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

तप संज्ञा पुं॰ [सं॰ तपस्]

१. शरीर को कष्ट देने वाले वे व्रत और नियम आदि जो चित्त को शुद्ध और विषयों से नीवृत्त करने के लिये किए जायँ । तपस्या । क्रि॰ प्र॰—करना ।—साधना । विशेष—प्राचीन काल में हिंदुओं, बौद्धों, यहूदियों और ईसाइयों आदि में बहुत से ऐस लोग हुआ करते थे जो अपनी इंद्रियों को वश में रखने तथा दुष्कर्मों से बचने के लिये अपने धार्मिक विश्वास के अनुसार बस्ती छोड़कर जंगलों और पहाड़ों में जा रहते थे । वहाँ वे अपने रहने के लिये घास फूस की छोटी मोटी कुटी बना लेते थे और कंद मूल आदि खाकर और तरह तरह के कठिन ब्रत आदि करते रहते थे । कभी वे लोग मौन रहते, कभी गरमी सरदी सहते और उपवास करते थे । उनके इन्हीं सब आचरणों को तप कहते हैं । पुराणों आदि में इस प्रकार के तपों और तपस्वियों आदि की अनेक कथाएँ हैं । कभी किसी अभीष्ट की सिद्धि या किसी देवता से वर की प्राप्ति आदि के लिये भी तप किया जाता था । जैसे, गंगा को लाने के लिये भगीरथ का तप, शिव जी से विवाह करने के लिये पार्वती का तप । पातंजल दर्शन में इसी तप को क्रियायोग कहा है । गीता के अनुसार तप तीन प्रकार का होता है—शारीरिक, वाचिक और मानसिक । देवताओं का पूजन, बड़ों का आदर सत्कार, ब्रह्मचर्य, अहिंसा आदि शारीरिक तप के अंतर्गत हैं; सत्य और प्रिय बोलना, वेदशास्त्र का पढ़ना आदि वाचिक तप हैं और मौनावलंबन, आत्मनिग्रह आदि की गणना मानसिक तप में है ।

२. शरीर या इंद्रिय को वश में रखने का धर्म ।

३. नियम ।

४. माघ का महीना ।

५. ज्योतिष में लग्न से नवाँ स्थान ।

६. अग्नि ।

७. एक कल्प का नाम ।

८. एक लोक का नाम । वि॰ दे॰ 'तपोलोक' ।

तप ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. ताप । गरमी ।

२. ग्रीष्म ऋतु ।

३. बुखार । ज्वर ।