तमाकू

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

तमाकू संज्ञा पुं॰ [पुर्त॰ टबैको]

१. तीन से छह फुट तक ऊँचा एक प्रसिद्ध पौधा जो एशिया, अमेरिका तथा उत्तर युरोप में अधिकता से होता है । तंबाकू । विशेष—इसकी अनेक जातियाँ हैं, पर खाने या पीने के काम में केवल ५-६ तरह के पत्ते ही आते हैं । इसके पत्ते २-३ फुट तक लंबे, विषाक्त और नशीले होते हैं । भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों में इसके बोने का समय एक दूसरे से अलग है, पर बहुधा यह कुआर, कातिक से लेकर पूस तक बोया जाता है । इसके लिये वह जमीन उपयुक्त होती है जिसमें खार अधिक हो । इसमें खाद की बहुत अधिक आवश्यकता होती है । जिस जमीन में यह बोया जाता है, उसमें साल में बहुधा केवल इसी की एक फसल होती है । पहले इसका बीज बोया जाता है और जब इसके अंकुर ५-६ इंच के ऊँचे हो जाते हैं, तब इसे दूसरी जमीन में, जो पहले से कई बार बहु त अच्छी तरह जोती हुई होती हैं, तीन तीन फुट की दूरी पर रोपते हैं । आरंभ से इसमें सिंचाई की भी बहुत अधिक आव- श्यकता होती है । इसके फूलने से पहले ही इसकी कलियाँ और नीचे के पत्ते छाँट दिए जाते हैं । जब पत्ते कुछ पीले रंग के हो जाते हैं और उसपर चित्तियाँ पड़ जाती हैं, तब या तो ये पत्ते काट लिय जाते हैं या पूरे पौधे ही काट लिए जाते हैं । इसके बाद वे पत्ते धूप में सुखाए जाते हैं और अनेक रूपों में काम में लाए जाते हैं । इसके पत्तों में अनेक प्रकार के कीड़े लगते हैं और रोग होते हैं । सोलहवीं शताब्दी से पहले तंबाकू का व्यवहार केवल अमेरिका के कुछ प्रांतों के आदिम निवासियों में ही होता था । सन् १४९२ में जब कोलंबस पहले पहल अमेरिका पहुँचा, तब उसने वहाँ के लोगों को इसके पत्ते चबाते और इसका धूआँ पीते हुए देखा था । सन् १५३९ में स्पेनवाले इसे पहले पहल यूरोप ले गए थे । भारत में इसे पहले पहल पुर्तगाली पादरी लाए थे । सन् १६०५ में इसे असदबेग ने बीजापुर (दक्षिण भारत) में देखा था और वहाँ से वह अपने साथ दिल्ली ले गया था । वहाँ उसने हुक्के और चिलम पर रखकर इसे अकबर को पिलाना चाहा था, पर हकीमों ने मना कर दिया । पर आगे चलकर धीरे धीरे इसका प्रचार बहुत बढ़ गया । आरंभ में इंगलैंड, फ्रांस तथा भारत आदि सभी देशों में राज्य की ओर से इसका प्रचार रोकने के अनेक प्रयत्न किए गए थे, धर्माधिकारियों और चिकित्सकों ने भी इसका प्रचार रोकने के अनेक उद्योग किए थे, पर वै सब निष्फल हुए । अब समस्त संसार में इसका इतना अधिक प्रचार हो गया हैं कि स्त्रियाँ, पुरुष, बच्चे और बुड्ढे प्रायः सभी किसी न किसी रूप में इसका व्यवहार करते हैं । भारत की गलियों में छोटे छोटे बच्चे तक इसे खाते या पीते देखे जाते हैं ।

२. इस पेड़ का पत्ता । सुरती । विशेष—इसका व्यवहार लोग अनेक प्रकार से करते हैं । चूर करके खाते हैं, सूँघते हैं, धूआँ खींचने के लिये नली में या चिलम पर जलाते हैं । इसमें नशा होता है । भारत में धूआँ पीने के लिये एक विशेष प्रकार से तमाकू तैयार किया जाता है (दे॰ तीसरा अर्थ) । इसका बहुत महीन चूर्ण सुँघनी कहलाता है जिसे लोग सूँघते हैं । भारत के लोग इसके पत्तों को सुखाकर पान के साथ अथवा यों ही खाने के लिये कई तरह का चूरा बनाते हैं, जैसे, सुरती जरदा आदि । पान के साथ खाने के लिये इसकी गीली गोली बनाई जाती है और एक प्रकार का अवलेह भी बनाया जाता है जिसे 'किमाम' कहते हैं । इस देस में लोग इसके सूखे पत्तों को चूने के साथ मलकर मुँह में रखते हैं । चूना मिलाने से बहुत तेज हो जाता है । इस रूप में इसे 'खैनी' या 'सुरती' कहते हैं । यूरोप, अमेरिका आदि देशों में इसके चूरे को कागज या पत्तों आदि में लपेटकर सिगार या सिगरेट बनाते हैं । इसका व्यवहार नशे के लिये किया जाता है और इससे स्वास्थ्य और विशेषतः आँखों को बहुत हानि पहुँचती है । वैद्यक में यह तीक्ष्ण, गरम, कडुआ, मद और वमनकारक तथा द्दष्टि को हानि पहुँचानेवाला माना जाता है ।

३. इन पत्तों से तैयार की हुई एक प्रकार की गीली पिंडी जिसे चिलम पर जलाकर मुँह से धूँआ खींचते हैं । विशेष—पत्तियों के साथ रेह मिलाकर जो तमाकू तैयार होता है, वह 'कडुआ' कहलाता है, गुड़ मिलाकर बनाया हुआ 'मीठा' कहलाता है, और कटहल, बेर आदि की खमीर मिलाकर बनाया हुआ 'खमीरा' कहलाता है । इसे चिलम पर रखकर उसके ऊपर कौयले की आग या सुलगती हुई टिकिया रखते हैं और खाली हाथ गौरिए अथवा हुक्के पर रखकर नली से धूआँ खींचते हैं । मुहा॰—तमाकू चढ़ाना = तमाकू को चिलम पर रखकर और उसपर आग या टिकिया रखकर उसे पीने के लिये तैयार करना । तमाकू पीना = तमाकू का धूआँ खींचना । तमाकू भरना = दे॰ 'तमाकू चढ़ाना' ।