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ताप

विक्षनरी से

प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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ताप संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. एक प्राकृतिक शक्ति जिसका प्रभाव पदार्थों के पिघलने, भाप बनने आदि व्यापारों में देखा जाता है और जिसका अनुभव अग्नि, सूर्य की किरण आदि के रूप में इंद्रियों को होता है । यह अग्नि का समान्य गुण है जिसकी अधिकता से पदार्थ जलते या पिघलेत हैं । उष्णता । गर्मी । तेज । विशेष— ताप एक गुण मात्रा है, कोई द्रव्य नहीं है । किसी वस्तु को तपाने से उसकी तौल में कुछ फर्क नीहं पड़ता । विज्ञाना- नुसार ताप गतिशक्ति का ही एक भेद है । द्रव्य के अणुओं में जो एक प्रकार की हलचल या क्षोभ उत्पन्न होत है, उसी का अनुभव ताप के रूप में होता है । ताप सब पदार्थों में थोड़ा बहुत निहित रहता है । जब विशेष अवस्था में वह व्यक्त होता है, तब उसका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । जब शक्ति के संचार में रुकावट होती है, तब वह ताप का रूप धारण करती है । दो वस्तुएँ जब एक दूसरे से रगड़ खाती हैं तब जिस शक्ति का रगड़ में व्यय होता है, वह उष्णता के रूप में फिर प्रकट होती है । ताप की उत्पत्ति कई प्रकार से होती है । ताप का सबसे बड़ा भांडार सूर्य है जिससे पृथ्वी पर धूप की गरमी फैलती है । सूर्य के अतिरिक्त ताप संघर्षण (रगड़), ताड़न तथा रासायनिक योग से भी उत्पन्न होता है । दो लकड़ियों को रगड़ने से और चकमक पत्थर आदि पर हथौड़ा मारने से आग निकलते बहुतों ने देखा होगा । इसी प्रकार रासायनिक योग से अर्थात् एक विशेष द्रव्य के साथ दूसरे विशेष द्रव्य के मिलने से भी आग या गरमी पैदा हो जाती है । चूने की डली में पानी डालने से, पानी में तेजाब या पोटाश डालने से गरमी या लपट उठती है । ताप का प्रधान कुण यह है कि उससे पदार्थों का विस्तार कुछ बढ़ जाता है अर्थात् वे कुछ फैल जाते हैं । यदि लोहे की किसी ऐसी छड़ को लें जो किसी छेद में कसकर वैठ जाती हो और उसे तपावें तो वह उस छेद में नहीं घुसेगी । गरमी में किसी तेज चलती हुई गाड़ी के पहिए की हाल जब ढीली मालूम होने लगती है, तब उसपर पानी डालते हैं जिसमें उसका फैलाव घट जाय । रेल की लाइनों के जोड़ पर जो थोड़ी सी जगह छोड़ दी जाती है, वह इसीलिये जिसमें गरमी मे लाइन के लोहे फैलकर उठ न जायँ । जीवों को जो ताप का अनुभव होता है वह उनके शरीर की अवस्था के अनुसार होता है, अतः स्पर्शेद्रिय द्वारा ताप का ठीक ठीक अंदाज सदा नहीं हो सकता । इसी से ताप की मात्रा नापने के लिये थर्मामीटर नाम का एक यंत्र बनाया गया है जिसके भीतर पारा रहता है जो अधिक गरमी पाने से ऊपर चढ़ता है और गरमी कम होने से नीचे गिरता है ।

२. आँच । लुपट ।

३. ज्वर । बुखार । क्रि॰ प्र॰ —चढ़ना । यौ॰—तापतिल्ली ।

४. कष्ट । दुःख । पीड़ा । विशेष—ताप तीन प्रकार का माना गया है— आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक । वि॰ दे॰ 'दुःख' । उ॰— वैहिक, दैविक, भौतिक तापा । रामरज काहुहि नहिं । व्यापा ।— तुलसी (शब्द॰) ।

५. मानसिक कष्ट । हृदय का दुःख (जैसे, शोक, पछतावा आदि) । उ॰— एकही अखंड जाप ताप कूँ हरतु है ।— संतवाणी॰, पृ॰ १०७ ।