तृण
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]तृण संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. वह उद्भिद् जिसकी पेडी़ या कांड में छिलके और हीर का भेद नहीं होता और जिसकी पत्तियों के भीतर केवल समानांतर (प्रायः लंबाई के बल) नसे होती हैं, जाल की तरह वुनी हुई नहीं । जैसे, दूब, कुश, सरात, मूँज, बाँस, ताड़ इत्यादि । घास । उ॰—ऊसर बरसे तृण नहिं जामा ।— तुलसी (शब्द॰) । विशेष—तृण की पेडी़ या कांडों के तंतु इस प्रकार सीधे क्रम से नहीं बैठे रहते कि उनके द्वारा मंडलांतर्गत मंडल बनते जायँ, बल्कि वे बिना किसी क्रम के इधर उधर तिरछे होकर ऊपर की और गए रहते हैं । अधिकांश तृणों के कांडों में प्रायः गाँठें थोडी़ थोडी़ दूर पर होती हैं और इन गाँठों के बीच का स्थान कुछ पोला होता है । पत्तियाँ अपने मूल के पास डंठल को खोली की तरह लपेटे रहती हैं । पृथ्वी का अधिकांश तल छोटे तृणों द्वारा आच्छादित रहता है । अर्क— प्रकाश नामक वैद्यक ग्रंथ में तृणगण के अंतर्गत तीन प्रकार के बाँस, कुश, काँस, तीन प्रकार की दूब, गाँडर, नरकट, गूँदी, मूँज, डाभ, मोथा इत्यादि माने गए हैं । मुहा॰—तृण गहना या पकड़ना = हीनता प्रकट करना । गिड़— गिडा़ना । तृण गहाना या पकड़ना = नम्र करना । विनीत करना । वशीभूत करना । उ॰— कहो तो ताको तृण गहाय के जीवत पायन पारौं ।—सूर (शब्द॰) । (किसी वस्तु पर) तृण टूटना = किसी वस्तु का इतना सुंदर होना कि उसे नजर से बचाने के लिये उपाय करना पडै़ । उ॰—आजु को बानिक पै तृण टूटत है कही न जाय कछू स्याम तोहि रत ।—स्वा॰ हरिदास (शब्द॰) । विशेष—स्त्रियाँ बच्चे पर से नजर का प्रभाव दूर करने के लिये टोटके की तरह पर तिनका तोड़ती हैं । तृणवत् = तिनके बराबर । अत्यंत तुच्छ । कुछ भी नहीं । तृण बराबर या समान = दे॰ 'तृणपत्' । उ॰—अस कहि चला महा अभिमानी । तृण समान सुग्रीवहिं जानी ।—तुलसी (शब्द॰) । तृण तोड़ना = किसी सुंदर वस्तु को देख उसे नजर से बचने के लिये उपाय करना । उ॰—(क) गाँथे महामनि मोर मंजुल अंग सब तृण तोरहीं ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी । निरखत छवि जननी तृण तोरी ।—तुलसी (शब्द॰) । (किसी से) तृण तोड़ना = संबंध तोड़ना । नाता मिटाना । उ॰—भुजा छुडाइ तोरि तृण ज्यों हित करि प्रभु निठुर हियो ।—सूर (शब्द॰) ।
२. तिनका (को॰) ।
३. खर पात (को॰) ।