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दीक्षा

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प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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दीक्षा संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]

१. यजन । यज्ञकर्म । सोमयागादि का संकल्पपूर्वक अनुष्ठान ।

२. गुरु या आचार्य का नियमपूर्वक मंत्रोपदेश । मंत्र की शिक्षा जिसे गुरु दे और शिष्ट ग्रहण करे । क्रि॰ प्र॰—देना ।—लेना । विशेष— वैदिक गायत्री मंत्र के अतिरिक्त आज कल भिन्न भिन्न देवताओं के बहुत से सांप्रदायिक इष्ट मंत्र तंत्रोक्त रीति के अनुसार प्रचलित हैं । गोतमीय तंत्र, योगिनी तंत्र, रुद्रयामल इत्यादि तंत्र ग्रंथों में दीक्षाग्रहण का माहत्म्य तथा उसके अनेक प्रकार के नियम दिए हुए हैं । विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य इत्यादि की उपासना के भेद से वैष्णव, रामतारक, शैव, शाक्त इत्यादि मंत्र प्रचलित हैं, जो शिष्य के कान में कहे जाते हैं । लोगों का साधारण विश्वास है कि विना गुरुमंत्र लिए गति नहीं होती । तंत्रों के अनुसार जिन मंत्रों के अंत में 'हुं॰ फट्' हो वे पुं॰ मंत्र, जिनके अंत में 'स्वाहा' हो वे स्त्री मंत्र और जिनके अंत में 'नमः' हो वे नपुंसक मंत्र कहलाते हैं । योगिनी तंत्र में लिखा है कि पिता, मामा, छोटे भाई और शत्रुपक्षवाले से मंत्र न लेना चाहिए । रुद्रयामल तंत्र पति से मंत्र लेने का भी निषेध करता है, पर उससे सिद्ध मंत्र लेने की आज्ञा देता है । शूद्र को प्रणव या प्रणवघटित मंत्र देने का निषेध है । शूद्र को गोवाल महे- श्वर, दुर्गा, सूर्य और गणेश का मंत्र देना चाहिए ।

३. उपनयन संस्कार जिसमें आचार्य गायत्री मंत्र का उपदेश देता है ।

४. वह मंत्र जिसका उपदेश गुरु करे । गुरुमंत्र ।

५. पूजन ।