दीन
विशेषण
दीन
- गरीब, जिसके पास कुछ भी (खाने पीने और रहने के लिए) नहीं होता या आवश्यकता से कम होता है।
प्रकाशितकोशों से अर्थ
शब्दसागर
दीन ^१ वि॰ [सं॰]
१. दरिद्र । गरीव । जिसकी दशा हीन हो । उ॰— दानी हौ सब जगत के तुम एकै मंदार । दारन दुख दुखियान के अभिमत फल दातार । अभिमत फल दातार देवगन सेवैं हित सों । सकल संपदा सोह छोह किन राखत चित सों । बरनै दीनदयाल छाँह तव सुखद बखानी । तोहि सेइ जो दीन रहै तौ तू कस दानी?— दीनदयाल (शब्द॰) ।
२. दुःखित । संतप्त । कातर । उ॰— आश्रम देख जानकी हीना । भए विकल जस प्राकृत दीना । — तुलसी (शब्द॰) । यौ॰— दीनदयाल । दीनबंधु । दीनानाथ ।
३. उदास । खिन्न । जिसमें किसी प्रकार का उत्साह या प्रसन्नता न हो । जिसका मन मरा हुआ हो । उ॰— (क) नवम सरल सब सन छल हीना । मम भरोस हिय हरष न दीना ।— तुलसी (शब्द॰) । (ख) ऐसेई दीन मलीन हुती मन मेरो भयो अब तो अति आरत ।— रसकुसुमाकर (शब्द॰) ।
४. दुःख या भय से अधीनता प्रकट करनेवाला । नम्र । विनीत । उ॰— दीन वचन सुनि प्रभु मन भावा । भुज बिसाल गहि हृदय लगावा ।— तुलसी (शब्द॰) ।
दीन ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰] तगर का फूल ।
दीन ^३ संज्ञा पुं॰ [अ॰] मत । मजहब । धर्मविश्वास । यौ॰— दीन ए इलाही, दीने इलाही = सम्राट् अकबर द्वारा चलाया हुआ एक पंथ जिसमें हिंदू धर्म तथा अन्य धर्मों की बातों का मिश्रण था । दीनदार । दीन दुखिया = निर्धन । विपन्न । दीन दुनिया = लोक परलोक । दीनदुनी ।
दीन ^४ संज्ञा पुं॰ [सं॰ दिन] दे॰ 'दिन' । उ॰— गेल दीन पुनु पलटि न आव ।— विद्यापति, पृ॰ ३०२ ।
दीन दुनिया संज्ञा पुं॰ स्त्री॰ [अ॰ दीन + फा॰ दुन्या] धर्म और संसार । उ॰— पलटू दुनिया दीन मैं उनसे बड़ा न कोइ । साहिब वही फकीर है जो कोइ पहुँचा होइ ।— पलटू॰, भा॰ १, पृ॰ ४ । मुहा॰— दीन दुनिया से बेखबर होना = न धर्म की परवाह करना और न समाज की । बेहोश होना । उ॰— आजादपाशा तमाम शब गशी के आलम में रहे, दीन दुनिया से बेखवर ।—फिसाना॰, भा॰ ३, पृ॰ १०६ ।