दुर्ग

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

दुर्ग ^१ वि॰ [सं॰]

१. जिसमें पहुँचना कठिन हो । जहाँ जाना सहज न हो ।

२. जिसका समझना कठिन हो । दुर्बोध ।

दुर्ग ^२ संज्ञा पुं॰

१. पत्थर आदि की चौड़ी दीवालों से घिरा हुआ वह स्थान जिसके भीतर राजा, सरदार और सेना के सिपाही आदि रहते है । गढ़ । कोट । किला । विशेष—ऋग्वेद तक में दुर्ग का उल्लेख है । दस्युओं के ९६ दुर्गों को इंद्र ने ध्वस्त किया था । मनु ने छह प्रकार के दुर्ग लिखे हैं- (१) धनुदुर्ग, जिसके चारों ओर निर्जल प्रदेश हो, (२) मही- दुर्ग, जिसके चारो ओर टेढ़ी मेढ़ी जमीन हो, (३) जलदुर्ग (अब्दुर्ग), जिसके चारों ओर जल हो, (४) वृक्ष दुर्ग, जिसके चारो ओर घने बृक्ष हों, (५) नरदुर्ग जिसके चारों ओर सेना हो और (६) गिरिदुर्ग, जिसके चारों ओर पहाड़ हो या जो पहाड़ पर हो । महाभारत में युधिष्ठिर ने जब भीम से पूछा है कि राजा को कैसे पुर में रहना चाहिए तब भीष्म जी ने ये ही छह प्रकार के दुर्ग गिनाए हैं और कहा है कि पुर ऐसे ही दुर्गों के बीच में होना चाहिए । मनुस्मृति और महाभारत दोनों में कोष, सेना, अस्त्र, शिल्पी, ब्राह्मण, वाहन, तृण, जलाशय अन्न इत्यादि का दुर्ग के भीतर रहना आवश्यक कहा गाय है । अग्निपुराण, कालिकापुराण आदि में भी दुर्गों के उपर्युक्त छह भेद बतलाए गए हैं ।

२. एक असुर का नाम जिसे मारने के कारण देवी का नाम दुर्गा पड़ा ।

३. विष्णु का नाम (को॰) ।

४. गुग्गुल (को॰) ।

५. एक पर्वत (को॰) ।

६. सँकरा मार्ग (को॰) ।

७. ऊबड़खाबड़ जमीन । ऊँची नीची भूमि (को॰) ।

८. यमदंड (को॰) ।

९. शोक । दुःख (को॰) ।

१०. दुष्कर्म (को॰) ।

११. सांसारिक बंधन (को॰) ।

१२. नरक (को॰) ।

१३. भयंकर विध्न, व्याधि या भयादि (को॰) ।