देवयान

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हिन्दी[सम्पादन]

प्रकाशितकोशों से अर्थ[सम्पादन]

शब्दसागर[सम्पादन]

देवयान संज्ञा पुं॰ [सं॰] शरीर से अलग होने के उपरांत जीवात्मा के जाने के लिये दो मार्गों में से वह मार्ग जिससे होता हुआ वह ब्रह्मलोक को जाता है । विशेष—उपनिषदों में जीवात्मा के उत्क्रमण अर्थात एक शरीर से दूसरे शरीर या एक लोक दूसरे लोक की प्राप्ति की कथा बहुत आई है । प्रश्नोपनिषद् में लिखा हैं कि संवत्सर ही प्रजापति है । दक्षिण और उत्तर उसके दो अयन हैं । जो कोई इष्टापूर्त और कृत (यज्ञ आदि कर्मकांड) की उपासना करते हैं वे चांद्रमस लोक को प्राप्त होते हैं और फिर वहाँ से लोटकर दक्षिणायन को पाते हैं । जो 'रयी' (खाद्य, धान्य) या पितृयाण कहलाता है । इसी प्रकार जो तप, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा और विद्या से आत्मा का अन्वेषण करते हैं वे उत्तरायण मार्ग से आदित्य लोक को प्राप्त करते हैं । इस मार्ग से गमन करनेवाले नहीं लौटते । छादोग्य उपनिषद् में लिखा है कि जो श्रद्धा और तप की उपासना करते हैं वे अर्चि (आग की लौ) को पाते हैं । अर्चि से अह्न (दिन), अह्न से आपूर्यमाण या शुक्ल पक्ष, आपूर्यमाण पक्ष से उत्तरायण के छह महीनौं को, उत्तरायण से संवत्सर, संवत्सर से आदित्य को, आदित्य से चंद्रमा को, चंद्रमा से विद्युत् को प्राप्त होने हैं और वहाँ अमानव (अर्थात् देव) हो जाते हैं । इसी मार्ग को देवयान कहते हैं जिससे मरनेवाला ब्रह्म को पाता है । वृह- दारण्यक उपनिषद में सूर्य से एकबारगी विद्युत् को प्राप्त होना लिखा है, चंद्रमा को छोड़ दिया है और 'अमानव' के स्थान पर 'अमानस' शब्द आया है जिसका आभिप्राय वही है । देवयान और पितृयाण का अभिप्राय केवल यही है कि ब्रह्मज्ञानी मरने पर उत्तरोत्तर प्रकाशमान् लोकों या स्थितियों में होते हुए ब्रह्मलोक या ब्रह्म की प्राप्त करते हैं । और कर्मकांड में रत मनुष्य धूमरात्रि कृष्णपक्ष, दक्षिणायन आदि उत्तरोत्तर अंधकार की स्थिति को प्राप्त करते हैं और लौटकर फिर जन्म लेते हैं । सारांश यह कि एक ओर प्रकाश की उत्तरोत्तर वृद्धिपरंपरा का क्रम रखा गया हैं और दूसरी ओर अंधकार की । वेदांतसूत्र के तीसरे और चौथे अध्याय में जीव के इन दोनों मार्गो पर बहुत ऊहापोह किया गया है । गीता के आठवें आध्याय में श्रीकृण ने भी इन मार्गो का उल्लेख किया है । उपनिषद् में जो उत्तरा- यण को देवयान और दक्षिणायन को पितृयाण कहा गया, इस कारण सूर्य जब उत्तरायण रहता है तब मरना मोक्ष- दायक माना जाता है । इसीलिये महाभारत में भीष्म क ा उत्तरायण सूर्य होने तक शरशय्या पर पड़ा रहना लिखा गया है ।